जी ई मूर का सहज बुद्धि का सिद्धांत

मुख्य परीक्षा/ दर्शन शास्त्र

जी ई मूर (1873-1958 ई)

सहज बुद्धि का समर्थन

जी ई मूर (जॉर्ज एडवर्ड मूर) वास्तववादी विचारक हैं। ये भी यह मानते हैं कि वस्तुएं किसी व्यक्ति या अतीन्द्रिय सत्ता के मन या विचारों की उपज न हो कर ठोस वास्तविकताएं हैं।

प्रत्ययवाद सहज बुद्धि के विपरीत है

प्रत्ययवादी मानते हैं कि कुछ अतीन्द्रिय सत्ताओं का अस्तित्व है जो मानवीय बुद्धि की क्षमता से ऊपर है। परंतु मूर का मानना है कि यह अनावश्यक बुद्धि विलास सहज ज्ञान से असंगत है। मूर ने अपने दो लेखों ‘डिफेंस आफ कामन सेंस‘ तथा ‘प्रूफ आफ एन एक्सटर्नल वर्ल्ड’ में सहज बुद्धि से संबंधित अपने विचारों को स्पष्ट किया है।

सहज ज्ञान के बिषय

सहज ज्ञान में दो तरह के अनुभव आते हैं; पहला, अपने स्वयं के बारे में और खुद से संबंधित वस्तुओं के बारे में अनुभव और दूसरा, अन्य लोगों के अनुभव। जैसे मेरा एक शरीर है जिसमें विभिन्न अंग हैं, यह कलम जो इस रंग की है मेरी है, आदि स्वयं के अनुभव हैं।

इसी तरह अन्य लोग भी अपने बारे में तथा दुनिया के अन्य लोगों और वस्तुओं के बारे में निश्चित तौर पर जानते हैं। मूर के अनुसार सहज बुद्धि किसी अलौकिक सत्ता को स्वीकार करने की अनुमति नहीं देती। दुनिया में जो भी अस्तित्व में हैं उन्हें चार प्रकारों में रखा जा सकता है। ये हैं; स्वयं की सत्ता, अन्य व्यक्तियों की सत्ता, वस्तुओं की सत्ता और देश काल की सत्ता।

सहज बुद्धि के विश्वासों की कुछ विशेषताएं

मूर के अनुसार सहज बुद्धि या सहज ज्ञान को परिभाषित नहीं किया जा सकता। सहज बुद्धि के विश्वासों को इसकी कुछ विशेषताओं के जरिए समझना आसान है।

  1. पागलों, बच्चों और कुछ दार्शनिकों के अलावा सभी लोग सहज ज्ञान पर विश्वास करते हैं।
  2. सहज ज्ञान साक्षात् ज्ञान है। यह हर किसी को बिना किसी मध्यस्थ के होता है।
  3. जरूरी नहीं कि सहज ज्ञान तार्किक हों लेकिन हमारा पूरा जीवन इन्हीं पर निर्भर होता है।
  4. इनका हमें अवबोध होता है, ज्ञान नहीं होता। दुनिया हजारों करोड़ों साल से है, इस बात को सभी समझते हैं, इसे अलग से जानने की जरूरत नहीं पड़ती।
  5. इसमें जानने की क्रिया को सामान्य अर्थ में लिया जाता है, न कि दार्शनिक अर्थ में।
  6. सहज ज्ञान साधारण भाषा में व्यक्त होता है।
  7. सहज बुद्धि के विश्वास स्वाभाविक होते हैं। ये प्रचलित धारणाओं या अंधविश्वासों से अलग हैं। इसे किसी धार्मिक-सांस्कृतिक आधार की आवश्यकता नहीं होती।

सहज ज्ञान के समर्थन में तर्क

मूर ने सहज ज्ञान के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिए हैं:-

1. सार्वभौमिक स्वीकृति

सहज ज्ञान को सभी मानते हैं। सभी स्वीकार करते हैं।

2. बाध्यता

सहज ज्ञान को मानना मजबूरी है। ‘शरीर का पोषण भोजन के द्वारा होता है।’ अगर जीवित रहना है तो इसे मानना ही होगा।

3. स्वप्न और जाग्रत अनुभव

कुछ दार्शनिक कहते हैं कि दुनिया की घटनाएं स्वप्न की तरह भ्रम है। लेकिन हम स्वप्न इस लिए देख पाते हैं कि हमारे पास जाग्रत अवस्था के अनुभव होते हैं। अर्थात् स्वप्न और भ्रम भी वास्तविकता को प्रमाणित करते हैं।

4. इंद्रियानुभूति

कुछ विचारकों का यह कहना कि हम केवल संवेदनाओं को जानते हैं, किसी वस्तु को नहीं। मूर के अनुसार इस अज्ञेयवाद में वैचारिक विसंगति है। वस्तुओं की संवेदनाएं हैं लेकिन वस्तुएं नहीं है या अज्ञेय है, ऐसा कथन आत्मसंगत नहीं है।

5. अहं केंद्रित विसंगति

कुछ प्रत्ययवादी ‘मैं और मेरा ज्ञान’ के अतिरिक्त किसी वस्तु को नहीं मानते। यह अत्यंत अहं केंद्रित और असंगत विचार है। लेकिन सहज ज्ञान में ऐसी विसंगतियां नहीं होतीं।

6. निष्ठा पर आधारित

सहज ज्ञान में सभी की पूरी निष्ठा होती है और इनके द्वारा हम व्यवहारिक जीवन चलाते हैं।

आलोचना

रसेल का एक आक्षेप यह है कि सहज बुद्धि के कई विश्वास गलत सिद्ध होते हैं । इन्हें प्रचलित धारणाएं कहकर मूर बचने की कोशिश करते हैं।

वस्तु और उसकी संवेदनाओं की समस्या बहुत गंभीर है लेकिन मूर ने इसे चलते में टाल दिया है।
सहज बुद्धि सामान्य जीवन में तो ठीक कहा भी जा सकता है परन्तु दार्शनिक विचार गूढ़ चिंतन पर आधारित हो तो यह गलत भी नहीं है।

मूर प्रत्ययवादी सिद्धांत को पहले तो सिरे से नकार देते हैं। उसके बाद उसके विरुद्ध तर्क देते हैं।
सहज बुद्धि या सहज ज्ञान को सिर्फ उदाहरणों से समझाने की कोशिश की गई है। इसे परिभाषित करने का प्रयास नहीं किया गया है।

मूर के सहज बुद्धि के सिद्धांत ने आधुनिक पाश्चात्य दर्शन को काफी प्रभावित किया। इसने रसेल ,विटगेंस्टीन तथा तार्किक भाववादियों का मार्ग प्रशस्त किया। मूर ने ज्ञान की भाषा की ओर ध्यान आकर्षित किया।
इससे भाषायी विश्लेषण दर्शन का एक कार्य बन गया। जब दार्शनिक सिद्धांत जीवन और जगत की वास्तविकता से बहुत ऊपर जाने लगा ऐसे समय में मूर ने इसे सहज ज्ञान के सहारे यथार्थ से जोड़ने का प्रयास किया।

परंतु मूर सहज बुद्धि के विचार को ठोस सिद्धांत के रूप में नहीं रख पाए। अस्पष्ट विचार और कमजोर तर्क की भूमि पर किसी विचारधारा का भवन खड़ा नहीं किया जा सकता। यहां तक कि उसने सहज ज्ञान को परिभाषित करने का प्रयास भी नहीं किया। सिर्फ उदाहरणों से अपनी बात समझाने की कोशिश करते रहे।

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