डेविड ह्यूम का संशयवाद

डेविड ह्यूम का संशयवाद

अनुभवाद जॉन लाॅक के दर्शन में शुरू होता है, बर्कले के विचारों में विकसित होता है तथा ह्यूम के दर्शन में अपने चरम पर पहुंच जाता है। अनुभववाद का स्वभाविक परिणाम संशयवाद हैडेविड ह्यूम (1711-1776 ई•) के दर्शन से यह स्पष्ट हो जाता है।

संशयवाद का अर्थ

संशयवाद या Scepeticism वह विचारधारा है जो यह मान कर चलती है कि हम निश्चित और असंदिग्ध ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सकते। ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया और उसकी सीमाएं ऐसी हैं कि हम केवल संभावनाओं को जानते हैं किसी अनिवार्य सत्य को नहीं इसलिए हमारा व्यवहार अटकल पर आधारित होता है।

ग्रीक संशयवाद

पाश्चात्य दर्शन में संशयवाद कोई नई चीज नहीं है। एक सिद्धांत के रूप में संशयवाद ग्रीक दार्शनिक पाइरो (ई•पू• 300) के विचारों में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। उनका अभिमत है कि हम वस्तुओं को नहीं जान सकते इसलिए हमें अपने परामर्शों (जजमेंट) को स्थगित कर देना चाहिए। पाइरो के शिष्यों ने उनके इस विचार को आगे बढ़ाया।

संदेहवादी विधि और संशयवाद

देकार्ते ने संदेहविधि का इस्तेमाल किया था परंतु उसके यहां संदेह केवल विचार की पद्धति है। देकार्ते संदेह विधि से असंदिग्ध ज्ञान पाने का दावा करते हैं। जबकि ह्यूम तो निश्चित ज्ञान की संभावना से बिल्कुल इंकार कर देते हैं। इसलिए देकार्ते का संशयवाद से दूर-दूर तक कोई संबंध  नहीं है।

उग्र संशयवाद

ए ट्रीटीज आन ह्यूमन बीइंग” में ह्यूम अपने विचारों को एक उग्र संशयवादी की तरह प्रस्तुत करते हैं। हम इंद्रिय संवेदनों और उनके प्रत्ययों को जानते हैं। इनके अतिरिक्त किसी भी वस्तु या सत्ता का ज्ञान को नहीं होता। हमारा समस्त ज्ञान आनुभविक है। अनुभव प्रसूत है। इंद्रिय संवेदनों से मन में प्रत्यय बनते हैं। इन्हीं प्रत्ययों से हमारा ज्ञान बनता है। समस्त आनुभविक ज्ञान संभावना मात्र है। इनमें निश्चितता नहीं होती। हमारे अनुभव की प्रकृति ही ऐसी है कि इससे सार्वभौमिक और निश्चित ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। हमारे पास इंद्रिय अनुभव के अलावा ज्ञान का दूसरा कोई साधन भी नहीं है।

गणित और तर्कशास्त्र के ज्ञान भी संशयरहित नहीं है

ऐसा लग सकता है कि गणित और तर्कशास्त्र इंद्रिय अनुभव से परे हैं परन्तु ऐसा नहीं है। गणित और तर्कशास्त्र की अवधारणाओं के मूल में भी आनुभविक प्रत्यय होते हैं चाहे मध्यवर्ती प्रत्ययों की श्रृंखला कितनी लंबी क्यों न हो? लेकिन ये किसी न किसी अनुभवजनित प्रत्यय पर आधारित होते हैं। ह्यूम के अनुसार गणित और तर्कशास्त्र के ज्ञान भी संशय रहित नहीं होते। यह संभव है कि गणित और तर्कशास्त्र के नियमों के पालन में बुद्धि से चूक हो जाए।

कारण-कार्य संबंध भी अनिवार्य नहीं है

ह्यूम कारण-कार्य नियम का भी खंडन करते हैं। कारण-कार्य नियम को मानने का हमारे पास कोई आधार नहीं है। हम घटनाओं के तारतम्य और निरंतरता को देखते हैं। एक घटना के बाद दूसरी घटित होती है। इसके अलावा हम कुछ नहीं जानते। हम सैकड़ों-हजारों बार एक के बाद दूसरी घटना को होते देखते हैं इसलिए हम उनमें कारण-कार्य संबंध मान लेते हैं। हम पहले और बाद की घटनाओं को देखते हैं, दोनों के बीच किसी कारण-कार्य संबंध को नहीं देख सकते। इस तरह ह्यूम के अनुसार कारण-कार्य संबंध वास्तविक न होकर मनोवैज्ञानिक विश्वास मात्र है।

पदार्थ, आत्मा और ईश्वर का निषेध

हमारा अनुभव संवेदन और उनके प्रत्ययों तक सीमित होता है। हमें न तो जड़ पदार्थ का अनुभव होता है, न ही आत्मा और ईश्वर का। हम अपने आंतरिक अनुभवों का चाहे जितना निरीक्षण कर लें, किसी आत्मा को नहीं पा सकते। हम सुख और दुख, प्रेम और घृणा आदि के स्वसंवेदनों को पाते हैं। इनसे अलग किसी आत्मा को नहीं। इसी तरह ईश्वर का भी कोई अनुभव नहीं होता इसलिए उसका भी अस्तित्व नहीं है।

प्राकृतिक नियम भी संशयरहित नहीं होते

आनुभविक ज्ञान अपनी प्रकृति से ही संभाव्य ज्ञान होता है। इसमें अनिवार्यता नहीं होती। हम केवल प्रत्ययों या इंद्रिय प्रत्यक्षों को जानते हैं। इनके मूल स्रोत के रूप में पदार्थों या वस्तुओं का अनुमान लगाने का कोई औचित्य नहीं है। इसलिए जिसे जगत कहते हैं उसके बारे में हमारा समस्त ज्ञान संभावना मात्र है। हम अटकल के आधार पर चलते हैं। यह अनुमान लगा कर काम चलाते हैं कि इन परिस्थितियों में ऐसा होगा।

परन्तु किसी भी अनुमान का हमारे पास कोई पुख्ता आधार नहीं होता। जैसे रोज पूर्व दिशा में सूरज उगता है। जन्म से ऐसा देखते आ रहे हैं। इसलिए यह मान लेते हैं कि कल भी सूरज पूर्व दिशा में ही उगेगा। यह हमारा विश्वास है और इसके सही होने की बहुत ज्यादा संभावना है लेकिन यह अनिवार्य नहीं है कि कल भी सूरज पूर्व से उगेगा। हो सकता है कि सूर्योदय ही न हो।

विनम्र संशयवाद

बाद में ह्यूम के विचारों में थोड़ी उदारता आई। वे अपनी पुस्तक ‘एन एसे कंसर्निंग ह्यूमन अंडरस्टेंडिंग‘ में उग्र संशयवाद का त्याग करके विनम्र संशयवाद को प्रस्तुत करते हुए दिखते हैं। अब उनके अनुसार गणित के नियम  सामान्यतः संशयरहित होते हैं तथा भौतिक वस्तुओं का अस्तित्व और कारण-कार्य नियम प्राकृतिक विश्वास हैं। ये दोनों आत्मा और ईश्वर की तरह शुद्ध कल्पनाएं न हो कर व्यवहारिक जीवन के लिए महत्वपूर्ण तथा स्वीकार्य हैं।

स्वयं ह्यूम ने व्यवहारिक जीवन में संशयवाद का विरोध किया है तथा यह माना है कि संशयवाद केवल लिखने पढ़ने में उपयोगी नहीं है व्यवहार में नहीं।

अनुभववाद की तार्किक परिणति संशयवाद है

ह्यूम से पहले के अनुभववादी लॉक और बर्कले अनुभववादी पद्धति का सम्पूर्ण अनुसरण नहीं कर पाए। लाॅक ने इतना जरूर माना कि हमारा समस्त ज्ञान अनुभव से अर्जित है। हम केवल संवेदनों और स्व-संवेदन को जानते हैं। इसके बाद भी लाॅक ने जड़ पदार्थ, आत्मा और ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया। जबकि हमें इनसे संबंधित इंद्रिय संवेदनों की प्राप्ति नहीं होती।

बर्कले ने इसी आधार पर जड़ पदार्थ को अस्वीकार कर दिया परंतु बोधात्मक ज्ञान के आधार पर आत्मा और ईश्वर को मान लिया। स्पष्ट है कि यह बोधात्मक ज्ञान इंद्रिय अनुभव से अलग वस्तु है। यह बौद्धिक ज्ञान बुद्धिवाद की अंतर्वस्तु है। इस तरह लाॅक और बर्कले दोनों ही अपने रास्ते से भटक गए। इसलिए ह्यूम अनुभववाद को उसकी परिणति तक पहुंचाते हैं।

हमारे ज्ञान की सीमाएं ही ऐसी हैं कि हम किसी निश्चित और अनिवार्य सत्य को नहीं जान पाते। समस्त ज्ञान संभावना मात्र है। इनमें संभावनाओं की मात्रा चाहे जितनी बढ़ जाए अनिवार्यता नहीं आ सकती। अनुभव पर आधारित आगमनात्मक सामान्यीकरण से हमारा ज्ञान बनता है। इस तरह के ज्ञान में भूतकाल के उदाहरण शामिल होते हैं भविष्य की घटनाओं का कोई योगदान नहीं हो सकता।

इसलिए प्रकृति की समस्त नियमितताएं संभावना मात्र है। सूरज रोज पूरब से ही निकलता है। वह कल भी पूरब से ही उगेगा। यह सामान्यीकरण एक संभावना मात्र है अकाट्य सत्य नहीं है। इसलिए हमारा समस्त ज्ञान अनुमान मात्र है। अटकल मात्र है। इसकी बहुत संभावना है कि वह आगे भी सच हो जाए लेकिन इसमें अनिवार्यता नहीं होती।

ह्यूम का संशयवाद बुद्धिवाद की तीव्र प्रतिक्रिया का भी परिणाम है। बुद्धिवादियों के जन्मजात प्रत्ययों की धारणा को स्वीकार करने का मतलब था वास्तविक ज्ञान की संभावना को नकार देना। केवल आकारिक ज्ञान सार्वभौम और अनिवार्य हो सकता है। जैसे कि गणित और तर्कशास्त्र में होता है। इस तरह ज्ञान के संवादी संवेदन अनुभव में नहीं मिलते इसलिए ये वास्तविक ज्ञान नहीं है। हम अनुभव जगत के संवेदन और प्रत्ययों को जानते हैं जो कि संभावित और संदिग्ध ज्ञान होता है। इस तरह ह्यूम के अनुसार संशय रहित ज्ञान का दावा निरर्थक है।

डेविड ह्यूम का संशयवाद
स्रोत: Wikipedia

समीक्षा

विज्ञान विरोधी सिद्धांत

ह्यूम ने अपने दार्शनिक विचारों से रूढ़िवाद की जड़ों को हिला दिया। अब कोई भी अनुभव से बिलकुल शून्य जन्मजात ज्ञान का दावा नहीं कर सकता था। लेकिन इस प्रयास में ह्यूम ने विज्ञान की नींव को ही खोद डाली। यह ठीक है कि वास्तविक ज्ञान केवल प्राकृतिक विज्ञानों में ही होता है परंतु उन्होंने अनिवार्य ज्ञान की संभावना से इन्कार कर दिया। अब विज्ञान के नियम भी अटकल मात्र थे।

बाद के दार्शनिकों के लिए यह बहुत बड़ी समस्या रही। कांट का पूरा दर्शन इसी पर आधारित है कि वैज्ञानिक ज्ञान कैसे संभव है? सिर्फ अनुभव के आधार पर तो यह असंभव था। इसलिए कांट ने अनुभववाद और बुद्धिवाद का मेल किया। उनके अनुसार ज्ञान की सामग्री निश्चित रूप से अनुभव से आती है लेकिन उसे आकार या ढांचा बुद्धि की कोटियों से मिलता है। बुद्धि से आकार पाकर हमारे इंद्रिय संवेदन निश्चित ज्ञान में बदलते हैं।

तार्किक व्याघात

अगर समस्त ज्ञान संदेहजनक है तो फिर संशयवाद भी संशयात्मक है। यह अपना खंडन स्वयं करता है।

संशय आपवादिक है

हम बात-बात में संदेह नहीं कर सकते। जब विपरीत प्रमाण मिलता है तब संदेह किया जाता है। व्यवहार का तकाजा है कि विज्ञान और विषय विशेषज्ञों पर तो विश्वास करना ही होगा। निरपेक्ष संशय अत्यंत खतरनाक है।

आनुभविक सत्यापन की अवधारणा

तार्किक भाववादियों ने भी अनुभव को आधार मानकर दार्शनिक विमर्श किये। उन्होंने ‘आनुभविक परीक्षण की संभावना’ को सत्य का आधार माना है।

निष्कर्ष

ह्यूम ने अनुभववाद को उसकी पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया। उनके अनुसार संशयरहित ज्ञान की प्राप्ति असंभव है। यह सिद्धांत सहज बुद्धि और विज्ञान दोनों के विपरीत है। यह नितांत अव्यवहारिक सिद्धांत है। ह्यूम स्वयं स्वीकार करते हैं कि यह सिर्फ पढ़ने लिखने में ही ठीक है।

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