लाइब्नित्ज का चिद्-बिंदुवाद या चिदणुवाद (MONADOLOGY OF LEIBNIZ)

लाइब्नित्ज का चिद्-बिंदुवाद या चिदणुवाद

आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में बुद्धिवादी विचारधारा का आरंभ देकार्ते से होता है जिसका चरम उत्कर्ष जर्मन दार्शनिक लाइब्नित्ज के दर्शन में हुआ है। लाइब्नित्ज एक महान गणितज्ञ और दार्शनिक थे। उनके विचारों पर कण-भौतिकी के परमाणुवाद का तथा रेखा गणित के बिन्दु सिद्धांत का बहुत बड़ा प्रभाव देखने को मिलता है।

चिद्-बिंदुवाद या चिदणुवाद

चिद्-बिंदुवाद या चिदणुवाद लाइब्नित्ज के दर्शन का केंद्रीय सिद्धांत है। इसके अनुसार द्रव्य एक न होकर अनन्त हैं, असंख्य हैं तथा ब्रह्माण्ड में सब जगह हैं। वे बिंदु की तरह विस्तार रहित हैं। इन विस्ताररहित अतिसूक्ष्म चेतन कणों को लाइब्नित्ज ने मोनाड (Monads) कहा है। हिन्दी में मोनाड को चिदणु या चिद् बिंदु कहा गया है। ये चिदणु ही विश्व के (मूल) द्रव्य हैं।

इस तरह लाइब्नित्ज का द्रव्य सिद्धांत स्पिनोजा और देकार्ते से भिन्न है। देकार्ते और स्पिनोजा दोनों के ही अनुसार द्रव्य वह है जो अपनी सत्ता और ज्ञान के लिए किसी दूसरे पर निर्भर नहीं है अर्थात् स्वतंत्र है। स्पिनोजा के अनुसार द्रव्य अनेक नहीं हो सकते अन्यथा वह स्वतंत्र और निरपेक्ष नहीं रहेगा। लेकिन लाइब्नित्ज अपनी द्रव्य की अवधारणा में क्रियाशक्ति पर बल देते हैं। अतएव “द्रव्य वह है जिसमें क्रियाशक्ति है।” 

चिदणुओं की विशेषताएं

  • चिदणु असंख्य हैं। अनंत हैं। विश्व में सभी जगह हैं।
  • चिदणु विस्तार रहित हैं। जैसे बिंदुओं का कोई विस्तार नहीं होता उसी तरह चिदणु भी विस्तार रहित होते हैं।
  • सरल और निरवयव होने से चिदणु अविभाज्य इकाइयां हैं।
  • चिदणु परमाणुओं की तरह भौतिक कण नहीं हैं। ये चेतन प्रकृति के हैं।
  • चिदणु नित्य है। उत्पत्ति और विनाश से परे है।

चिदणु गवाक्षहीन होते हैं अर्थात् इनमें कोई झरोखा या खिड़की नहीं होती। इसलिए चिदणुओं में परस्पर आदान-प्रदान नहीं होता। इसके बावजूद इनका अंत:विकास होता है लेकिन ये दूसरे चिदणुओं से प्रभावित नहीं होते। प्रत्येक चिदणु में उसके विकास की संपूर्ण संभावानाएं पहले से अंतर्निहित होती हैं। इन्हें अनुभव से कुछ प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए लाइब्नित्ज के अनुसार हमारा सारा ज्ञान अनुभव पूर्व है। जन्मजात प्रत्ययों से निगमित होता है।

चिदबिंदुवाद के नियम

सातत्य और निरंतरता का नियम :- ब्रह्मांड में ऐसी कोई जगह नहीं जहां चिद् बिंदु न हो। देश या स्पेस अपने आप में अलग से कुछ भी नहीं है बल्कि चिंद् बिंदुओं की सतत निरंतरता है। दो चिद् बिंदुओं के बीच अनेक चिद् बिंदु हैं। कहीं भी अंतराल नहीं है।

समानता का नियम :- सभी चिद् बिंदु चेतन हैं, जड़ या भौतिक नहीं है। इस अर्थ में सब समान हैं। जिन्हें हम भौतिक समझते हैं उनमें भी चेतना है लेकिन कम मात्रा में। 

असमानता का नियम :- प्रत्येक चिद् बिंदु में चेतना की मात्रा भिन्न भिन्न है। इसलिए गुणात्मक रूप से समान होते हुए भी उनमें मात्रात्मक अंतर है।

शक्ति के संरक्षण का नियम :- चूंकि चिद् बिंदु गवाक्षहीन हैं। उनमें आदान-प्रदान नहीं हो सकता। इसलिए प्रत्येक चिद् बिंदु की कुल शक्ति नियत रहती है।

चिदणुओं की प्रक्रियाएं

प्रत्येक चिदणु में दो तरह की प्रक्रियाएं होती हैं – प्रत्यक्षण एवं प्रयासन

प्रत्यक्षण – चूंकि सभी चिद् बिंदु गवाक्षहीन हैं इसलिए उनमें सामान्य आनुभविक अर्थ में प्रत्यक्ष की क्रिया नहीं हो सकती। यहां प्रत्यक्षण का अर्थ है परसेप्सन। बुद्धिवादी विचारधारा के अनुसार हमारा समस्त ज्ञान अनुभव से असंबद्ध तथा जन्मजात है। इसलिए प्रत्यक्षण की क्रिया में प्रत्येक चिदणु स्वयं को प्रत्यक्षित करने के साथ-साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को भी प्रत्यक्षित करता है। प्रत्येक चिदणु स्वयं में लघु ब्रह्माण्ड है। लेकिन चिदणुओं की प्रत्यक्षण क्षमता उनमें निहित चेतना की मात्रा के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। सबसे अधिक चैतन्य चिदणु अधिक स्पष्ट प्रत्यक्षण कर सकता है।

प्रयासन :- चेतना की मात्रा के अनुसार चिदणुओं का अलग-अलग स्तर है। चिदणु अपने से उच्च स्तर पर जाने का प्रयास करता है ताकि वह बेहतर प्रत्यक्षण कर सके। इसे ही प्रयासन कहते हैं। प्रयासन का सीधा अर्थ है चेतना के उच्च स्तर को प्राप्त करने का प्रयास करना।

चिदणुओं के स्तर

लाइब्नित्ज चिदणुओं के पांच स्तरों की चर्चा करते हैं।

  • परम चिदणु – ईश्वर
  • आत्मचेतन चिदणु – मनुष्य
  • चेतन चिदणु – पशु जगत
  • उपचेतन चिदणु – वनस्पति जगत
  • अचेतन चिदणु – जड़ जगत

उपरोक्त पांचों स्तरों की तुलना उपनिषद दर्शन के पंचकोषों के विचार से भी की जाती है। इन्हें क्रमशः आनंदमय कोष, विज्ञानमय कोष, मनोमय कोष, प्राणमय कोष तथा अन्नमय कोष से सुसंगत किया जाता है।

यहां जिसे अचेतन या जड़ कहा जा रहा है वह अचेतन नहीं होकर चेतना की कम मात्रा का द्योतक है।

चिद् बिंदुवाद के विरूद्ध आपत्तियां

भौतिक जगत की असंतोषजनक व्याख्या

लाइब्नित्ज चेतन और जड़ की समस्या का संतोषजनक समाधान नहीं कर पाते। उनके अनुसार जड़ भी चेतन ही है अंतर इतना है कि तथाकथित जड़ पदार्थों में चेतना की मात्रा कम होती है। जड़ता वास्तविक नहीं है आभास मात्र है। लाइब्नित्ज दो तरह की जड़ता की बात करते हैं। मूल जड़ता और गौण जड़ता। मूल जड़ता चिदणुओं में अंतर्निहित अवरोधक क्षमता है जो उनकी गति और शक्ति को आभासी तौर पर सीमित करती है। चिदणुओं की समूहन की प्रवृत्ति को गौण जड़ता कहा गया है। इसके कारण चिदणुओं का संघात बनता है जोकि जड़ का आभास पैदा कराता है।

देश या स्थान

लाइब्नित्ज ने चिदणुओं को विस्तार शून्य माना तथा इन्हीं के संघात से स्थान की अवधारणा को समझाया है। विस्तार रहित चिदणुओं का समूहन देश या स्पेश को कैसे उत्पन्न कर सकता है। यदि शून्य से शून्य को अनंत बार भी जोड़ा जाए तो भी परिणाम शून्य ही होगा।

पूर्व स्थापित सामंजस्य की अवधारणा भी संतोषजनक नहीं है:

लाइब्नित्ज ने सर्वोच्च चिदणु के रूप में ईश्वर की अवधारणा को स्वीकार कर लिया है। यह उनकी विवशता है। यदि सभी चिदणु स्वतंत्र और शाश्वत हैं तो फिर वे मिलकर कैसे काम कर सकते हैं? जबकि उनमें कोई गवाक्ष या झरोखा भी नहीं है। ऐसे में चिदणुओं में सूचनाओं का परस्पर आदान-प्रदान नहीं हो सकता। इसके समाधान में लाइब्नित्ज पूर्व स्थापित सामंजस्य की अवधारणा को विकसित करते हैं।

उनके अनुसार जिस तरह सभी घड़ियां अलग-अलग होकर भी एक ही समय बताती हैं अथवा आर्केस्ट्रा के अलग-अलग वाद्ययंत्र अलग-अलग व्यक्तियों के द्वारा बजाये जाते हैं फिर भी संगीतकार का निर्देशन इस प्रकार होता है कि वे एक धुन उत्पन्न करते हैं। ठीक इसी तरह विभिन्न चिदणु परस्पर स्वतंत्र होते हुए भी पहले से स्थापित व्यवस्था के तहत इस तरह काम करते हैं कि सृष्टि की समस्त प्रक्रियाएं चलती रहती हैं। एक सर्वोच्च चेतन चिदणु अन्य असंख्य चिदणुओं में पूर्व निर्धारित सामंजस्य कायम करता है। ईश्वर ही वह सर्वोच्च चिदणु है।

 लेकिन उनका यह सिद्धांत समाधान कारक नहीं है। क्योंकि तब चिदणुओं को स्वतंत्र मानने का कोई तुक नहीं है। इस तरह लाइब्नित्ज वापस देकार्ते की जगह आ जाते हैं। चिदणु सापेक्ष द्रव्य हो जाते हैं और ईश्वर निरपेक्ष द्रव्य। देकार्ते ने भी तो ईश्वर को निरपेक्ष द्रव्य मानते हुए शरीर और आत्मा को सापेक्ष द्रव्य माना था।  वस्तुत: लाइब्नित्ज की प्रणाली में ईश्वर बाहरी तत्व प्रतीत होता है।

संकल्प की स्वतंत्रता से संबंधित प्रश्न

पूर्व स्थापित सामंजस्य के सिद्धान्त को मान लेने से संकल्प की स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है। यदि सब कुछ ईश्वर के द्वारा पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार घटित हो रहा है तो ऐसे में मानवीय प्रयासों के लिए कोई गुंजाइश नहीं रह जाती।

ज्ञानमीमांसा संबंधी आक्षेप

इनके अलावा लाइब्नित्ज के दर्शन में वे समस्त आक्षेप लगाये जा सकते हैं जो कि बुद्धि वाद के विरूद्ध उठाए गए हैं। इनमें सबसे मुख्य आक्षेप तो वास्तविक ज्ञान की संभावना को लेकर है। लाइब्नित्ज के अनुसार समस्त  प्रत्यय जन्मजात हैं। इसलिए हमारा समस्त ज्ञान अनुभव से असंबद्ध है। मन या बुद्धि में कुछ प्रत्यय या विचार जन्म से होते हैं जिनके विश्लेषण से समस्त ज्ञान का निगमन किया जाता है। परंतु अनुभववादियों का और कांट का भी आक्षेप है कि ऐसा ज्ञान निश्च्यात्मक तो हो सकता है लेकिन वास्तविक नहीं। ज्ञान में वास्तविकता तो अनुभव से प्राप्त सामग्री के जरिए आती है।

सार संक्षेप

लाइब्नित्ज जगत के मूल कारण के रूप में असंख्य अनंत चेतन तत्त्वों को स्वीकार करते हैं। इन्हें हिंदी में चिदणु कहा गया है। चिदणु बिंदु की तरह विस्तार रहित हैं। लेकिन वास्तविक हैं। ये पूरे ब्रह्मांड में हर जगह हैं। ये शाश्वत और नित्य हैं। उत्पत्ति, विनाश और परिवर्तन से परे हैं। इनमें आपस में कोई लेन देन या साझा नहीं होता। चिदणु गवाक्षहीन होते हैं। बिना खिड़की के। चिदणुओं का आत्म-विकास बिना किसी बाहरी प्रभाव के स्वत: होता है। इसलिए हमारे ज्ञान की व्याख्या में अनुभव की कोई प्रासंगिकता नहीं है। हमारे मन में जन्मजात प्रत्यय होते हैं। इन्हीं से हमारा समस्त ज्ञान विज्ञान निगमित होता है। यह बुद्धिवाद का चरम है।

परंतु यह प्रश्न खड़ा होता है कि परस्पर स्वतंत्र चिदणु किस तरह आपस में मिलकर विश्व रचना और विकास में भाग लेते हैं जबकि उनमें आपस में आदान-प्रदान भी नहीं हो सकता। इसके समाधान में लाइब्नित्ज ने पूर्व स्थापित सामंजस्य का सिद्धांत दिया है। सभी चिदणुओं में पहले से ऐसी व्यवस्था बना दी गई है कि वे परस्पर स्वतंत्र होते हुए भी साथ-साथ क्रियाशील हो कर समन्वित परिणाम देते हैं। जैसे सभी घड़ियां अलग-अलग होकर भी एक ही समय बताती हैं क्योंकि उन्हें ऐसे ही व्यवस्थित किया गया है। इसी तरह चिदणुओं में भी व्यवस्था है। यह व्यवस्था सर्वोच्च चिदणु ने की है। यह सर्वोच्च चिदणु ही ईश्वर है।

इस तरह लाइब्नित्ज अपनी प्रणाली में खुद कायम नहीं रह पाते। पहले तो वे स्वतंत्र और निरपेक्ष द्रव्य के रूप में असंख्य विस्ताररहित चेतन बिंदु स्वरूप चिदणुओं को स्वीकार करते हैं फिर बाद में एक सर्वोच्च चिदणु के रूप में ईश्वर को इनका नियंता बताते हैं। सब-कुछ पूर्व निर्धारित मान कर संकल्प की स्वतंत्रता को भी खारिज कर देते हैं। वे ज्ञान की प्रक्रिया में अनुभव की अवहेलना करते हैं। इस तरह उनका सिद्धांत तत्व और ज्ञान संबंधी समस्याओं का संतोषजनक समाधान प्रस्तुत नहीं करता।

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