सांख्य दर्शन : प्रकृति, पुरुष एवं सत्कार्यवाद

सांख्य दर्शन

भारतीय दर्शन पद्धतियों में सांख्य सबसे प्राचीन माना जाता है। महर्षि कपिल के द्वारा सांख्य दर्शन का प्रतिपादन किया गया। सांख्य दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। इसके अनुसार मूलतत्व दो हैं। एक प्रकृति और दूसरा पुरुष (आत्मा)।

प्रकृति

प्रकृत त्रिगुणात्मक और अचेतन है। सत, रज और तम तीन गुण प्रकृति के हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार विश्व त्रिगुणात्मक प्रकृति का वास्तविक परिणाम है।

सांख्य दर्शन में पुरुष (आत्मा) संबंधी विचार व प्रमुख सिद्धांत 

सांख्य के अनुसार पुरुष की सत्ता स्वयंसिद्ध है। इसके अस्तित्व के खंडन में भी इसकी सिद्धि हो जाती है। जो खंडन कर रहा है वही चेतन आत्मा है। वह स्वयंप्रकाश ही। चेतना उसका स्वरूप लक्षण है। वह शरीर, मन, इंद्रियों और बुद्धि से भिन्न है। वह अभौतिक है। उसका न आदि है, न अंत है। अतः वह अमर है, नित्य है, शुद्ध है, बुद्ध है।

पुरुष चेतनाशील है, पर निष्क्रिय है। वह अपरिवर्तनशील है। वह सदैव ज्ञाता है, ज्ञान का विषय नहीं बनता। वह साक्षी है। उदासीन है। सुख-दुख से अप्रभावित रहता है। वह अविकारी है। अपरिणामी है। सनातन है। सत, रज और तम तीन गुण प्रकृति के हैं। पुरुष इन तीनों गुणों से परे है, गुणातीत है। सांख्य पुरुष को आनंद-स्वरूप भी नहीं मानता।

पुरुष के अस्तित्व के प्रमाण

  1. संसार के सभी पदार्थ किसी के साधन हैं, किसी के प्रयोजन के लिए हैं। जड़तत्व का स्वयं का प्रयोजन नहीं हो सकता। ये सभी पदार्थ किसी चेतन सत्ता के प्रयोजनार्थ हैं। वह चेतन सत्ता पुरुष है।
  2. प्रकृत त्रिगुणात्मक और अचेतन है। कोई ऐसी सत्ता भी होनी चाहिए जो गुणातीत और चेतन हो। पुरुष या आत्मा चैतन्य स्वरूप है।
  3. जड़ प्रकृति को विकास के लिए प्रेरित करने हेतु चेतन पुरुष की आवश्यकता है।
  4. सुख-दुख, उदासीनता आदि अनुभूति पुरुष को ही होती है।
  5. मोक्ष को प्राप्त करने का उद्यमकर्ता पुरुष ही है।

पुरुष की अनेकता

सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति एक ही है लेकिन पुरुष की संख्या अनेक है। जितने व्यक्ति उतने पुरुष या आत्मा हैं। सांख्य दर्शन में पुरुषों की अनेकता को सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित प्रमाण दिए जाते हैं –

  1. भिन्न-भिन्न व्यक्तियों का जन्म मरण अलग-अलग होता है, इसलिए आत्मा या पुरुष अनेक हैं।
  2. प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक क्षमता और मन: स्थिति भिन्न-भिन्न होती हैं क्योंकि वे सब भिन्न-भिन्न आत्माओं या पुरुषों के अधिष्ठान होते हैं।
  3. विभिन्न पुरुषों में सत, रज, तम ये गुण अलग-अलग मात्रा में पाए जाते हैं। अतः पुरुष अनेक हैं।
  4. विभिन्न योनियों के जीवों काफी भिन्नता पाई जाती है इसलिए भी पुरुष अनेक हैं।
  5. व्यक्तियों में बौद्धिक और शारीरिक क्षमताओं में भी बहुत अंतर होता है।

बंधन और मोक्ष

सांख्य के अनुसार मोक्ष या कैवल्य की अवस्था में पुरुष या आत्मा अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप को ही अनुभव करती है। अविवेक या अज्ञान ही बंधन का कारण है। जब पुरुष को स्वरूप का ज्ञान होता है तो वह स्वयं को त्रिगुणात्मक प्रकृति और उसके विकारों से अलग शुद्ध चैतन्य स्वरूप समझने लगता है तब वह मुक्त हो जाता है।

समीक्षा

सांख्य दर्शन के आत्मा संबंधी विचार की भी आलोचना की गई है। सांख्य दर्शन में शुद्ध बुद्ध आत्मा और सांसारिक जीव दोनों को एक समझने की गलती की गई है। विशेषकर जब पुरुष के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए व्यावहारिक जीव का सहारा लिया गया है। शुद्ध चैतन्य आत्मा को मन और शरीर की क्रियाओं द्वारा कैसे समझाया जा सकता है? पुरुष के अनेकत्व के प्रमाण बद्ध जीवों से संबंधित हैं, न कि अजर अमर आध्यात्मिक आत्मा के संबंध में।

सांख्य दर्शन में कार्य-कारण सिद्धांत

सत्कार्यवाद

कारण और कार्य के मध्य संबंध के बारे में सांख्य दर्शन का सिद्धांत सत्कार्यवाद कहलाता है। सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य अपने कारण में पहले से अंतर्निहित रहता है और उचित परिस्थितियों में प्रकट होता है।

जैसे घड़े का उपादान कारण मिट्टी का लोंदा है जिसमें घड़ा पहले से मौजूद है। कुम्भकार और उसका चाक आदि निमित्त कारण हैं जो घड़े को मिट्टी के लोंदे से व्यक्त करता है जो उसमें पहले से विद्यमान या सत् है।

सांख्य का यह मत न्याय-वैशेषिक के कारणता संबंधी सिद्धांत के विपरीत है। न्याय दर्शन के अनुसार कार्य कारण में पहले से नहीं रहता (असत्) बल्कि कार्य सर्वथा एक नई उत्पत्ति है, एक नया आरंभ है। इसलिए न्याय-वैशेषिक का कार्य-कारण सिद्धांत असत्कार्यवाद या आरंभवाद कहलाता है।

न्याय दर्शन के असत्कार्यवाद के विरोध में और सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद के समर्थन में ईश्वरकृष्ण ने अपने ग्रंथ सांख्यकारिका की कारिका संख्या 9 में लिखते हैं :-

असदकरणादुपादान ग्रहणात्, सर्वस्य संभवाभावात्।
शक्तस्य शक्य कारणात्, कारणभावाच्च सत्कार्यम्।।

  1. असत् अकरणात् :- अर्थात् जो असत् है, है ही नहीं उसे उत्पन्न या प्रकट नहीं किया जा सकता। जैसे बंध्यापुत्र या आकाश कुसुम।
  2. उपादान ग्रहणात् :- तेल निकालने के लिए तिल आदि तैलीय पदार्थ ही लिया जाता है जो कि तेल का उचित उपादान कारण है इससे भी प्रमाणित होता है कि कार्य अपने उपादान कारण में पहले से मौजूद होता है।
  3. सर्वस्य संभवाभावात् :- सबसे सब कुछ उत्पन्न न होना। यदि कार्य अपने कारण में पहले से मौजूद नहीं होता तो किसी भी कारण से कुछ भी उत्पन्न या प्रकट किया जा सकता था।
  4. शक्तस्य शक्य कारणात् :- प्रत्येक कारण में कोई विशेष कार्य कर सकने की क्षमता होती है। आग जला सकती है। बर्फ नहीं जला सकती।
  5. कारणभावात् :- कार्य अपने कारण के समान होता है। तिल का तेल तिल के समान गुणधर्म वाला होता है जबकि सरसों के तेल में सरसों के गुण पाए जाते हैं। यह समानता भी बताती है कि कार्य अपने कारण में ही पहले से ही अव्यक्त रूप में सत् था, विद्यमान था।

सांख्य दर्शन के अनुसार कार्य अपने कारण में अव्यक्त अवस्था में रहता है इसलिए उसे कारण से भिन्न समझना ठीक नहीं है। लेकिन न्याय-वैशेषिक इसका विरोध करते हुए कहते हैं कि यदि मिट्टी के लोंदे में घड़ा पहले से ही होता तो उसे उत्पन्न करने के लिए निमित्त कारणों की आवश्यकता नहीं होती। और फिर जो पहले से मौजूद है उसे उत्पन्न करने की जरूरत ही क्यों? यदि मिट्टी के लोंदे में पहले से घड़ा है तो घड़े की जगह मिट्टी का उपयोग क्यों नहीं किया जाता?

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13 thoughts on “सांख्य दर्शन : प्रकृति, पुरुष एवं सत्कार्यवाद”

  1. Ye hai sankhya darshan….
    To galat likha hai isme….
    Purush aanek nahi ho sakhthe…
    Purush ek hai kewal ek…
    Purush ko sukh dukh nahi hota balki purush aur prakiti ke yog k karan prakati ko hi anubhau hota hai…
    Purush to kewal sakchi hai…..

  2. अच्छी तरह से व्यक्त किया है।
    मैं सांख्य दर्शन के बारे में और ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ।
    मार्गदर्शन करें।
    धन्यवाद।

      1. धर्मेंद्र सोनी

        झांसी जिले में एक गांव है बसोबई तहसील मोंठ ।यहां एक पहाड़ है सेरहा पहाड़, इसकी एक गुफा को माना जाता है यहां कपिल मुनि ने तप किया था।गुफा में एक कुंड है जिसमे से बहुत पहले कुछ लोग अंदर गए बताया जाता है वहां एक तख्त जैसी संरचना पर भोज पत्र पर लिखी हुई एक पुस्तक है ।यदि यह किवदंती सच है तो हम सांख्य दर्शन के मूल स्वरूप तक पहुंच सकते हैं। वहां आधुनिक यंत्रों की सहायता से जाकर उस पुस्तक को खोजने का प्रयास करना चाहिए।

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