अशुभ की समस्या

अशुभ की समस्या

अशुभ की समस्या धर्म-दर्शन का एक महत्वपूर्ण विषय-क्षेत्र है। इस विश्व में अशुभ का सदा-सर्वदा अस्तित्व रहा है। अशुभ का होना ईश्वरवादी धर्मों और दर्शन पद्धतियों के लिए एक ऐसी समस्या है जिसका संतोषजनक समाधान नहीं हो सकता।

बाढ़, भूकंप, रोग, महामारी आदि के रूप में प्राकृतिक आपदाओं के कारण मानव शुरू से ही दुःख और मृत्यु को प्राप्त होते रहे हैं। इसी तरह व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले पाप या कुकर्म से भी मानवों को कष्ट भोगना पड़ता है।

दुनिया में असंख्य तरह के अशुभ होते हैं। इन्हें चार प्रकारों में रखा जा सकता है। दुःख, असत्य, कुरुपता और पाप अशुभ के प्रकार हैं।

अशुभ शुभ का अभाव तथा विरोधी है। सुख, सत्य, सौंदर्य और अच्छाई शुभ हैं। इन मूल्यों से मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। इनका अभाव सभी तरह के दु:खों का कारण है। पीड़ा, असत्य, कुरुपता तथा पाप क्रमशः सुख, सत्य, सौंदर्य और अच्छाई के विरोधी हैं।

अशुभ सभी देशों और कालों में पाए जाते हैं। अशुभ के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। हर समय और हर जगह विभिन्न तरह के अशुभ से मानवता का सामना होते रहता है। कोई भी व्यक्ति अशुभ के सार्वदेशिक और सार्वकालिक अस्तित्व से इन्कार नहीं कर सकता। इसलिए ईश्वरवादियों के समक्ष अशुभ के अस्तित्व की व्याख्या करना एक कठिन कार्य हो जाता है।

सभी ईश्वरवादी यह मानते हैं कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है। वह कुछ भी कर सकने की असीमित शक्तियों और क्षमताओं से युक्त है। ईश्वर परम दयालु भी है। वह संसार के समस्त जीवों के कष्टों को दूर करना चाहता है। वह न्यायप्रिय भी है। एक सर्वशक्तिमान परम दयालु ईश्वर के होते हुए दुनिया में अशुभ का होना तर्कबुद्धि से परे है। अब हम निम्नलिखित तीन वाक्यों पर गौर करते हैं।

  1. ईश्वर सर्वशक्तिमान है।
  2. ईश्वर दयालु है।
  3. अशुभ का अस्तित्व है।

कोई भी ईश्वरवादी उक्त तीनों कथनों में से किसी भी एक की सत्यता को झुठला नहीं सकता। लेकिन ये तीनों कथन एक साथ सत्य नहीं हो सकते। चलो यह मान लिया जाए कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है। वह कुछ भी कार्य कर सकता है। फिर भी दुनिया में अशुभ का अस्तित्व है तो इसका अर्थ निकाला जा सकता है कि वह दयालु एवं न्यायप्रिय नहीं है। तभी तो वह सर्वशक्तिमान होते हुए भी अशुभ और कष्टों को दूर नहीं करना चाहता। यदि वह दयालु होता तो जरूर उनकी सब तकलीफों को खतम कर देता। इस तरह ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो वह दयालु नहीं है तभी तो दुनिया में दुःख का अस्तित्व है।

अब यह मान लिया जाए कि ईश्वर परम दयालु है और जीवों को दुखों से मुक्त करना भी चाहता है। लेकिन दुनिया में अब तक घोर कष्ट और पाप है। अगर यह सत्य है तो ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है। वह दुखों को समाप्त करना तो चाहता है लेकिन कर नहीं पा रहा है। ईश्वरवादी ऐसे किसी अशक्त और सीमित शक्तियों वाले ईश्वर को स्वीकार नहीं करते।

तो समस्या यह है कि एक सर्वशक्तिमान और परम दयालु, न्यायप्रिय ईश्वर के होते हुए दुनिया में अशुभ के अस्तित्व में होने की उचित व्याख्या कैसे की जाए? यह ईश्वरवादियों के लिए बहुत बड़ी चुनौती रही है। ईश्वरवादी इसका अलग अलग उत्तर देते रहे हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए कुछ समाधान पर हम यहां विचार करेंगे।

अशुभ ‘संकल्प की स्वतंत्रता’ के दुरुपयोग के परिणाम हैं :

कुछ ईश्वरवादियों का तर्क है कि ईश्वर ने मानवों को संकल्प की स्वतंत्रता दी है। मनुष्य विचार करके अच्छा या बुरा कुछ भी चुनने के लिए स्वतंत्र है। इसलिए दुनिया में जितने भी पाप और कुकर्म हैं वह सब ईश्वर द्वारा प्रदत्त संकल्प की स्वतंत्रता के दुरुपयोग का परिणाम है।

समीक्षा – अगर यह मान भी लिया जाए कि ईश्वर ने मानवों को संकल्प की स्वतंत्रता से संपन्न बनाया है तो भी यह तर्क अशुभ की समस्या का संतोषजनक समाधान नहीं करता। अधिक से अधिक इससे व्यक्तियों द्वारा संकल्प की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके किए जाने वाले कुकर्मों और पापों की व्याख्या की जा सकती है। यह सिद्धांत सिर्फ नैतिक अशुभ की व्याख्या करने का प्रयास करता है। इससे बाढ़, भूकंप, महामारी आदि प्राकृतिक अशुभ की व्याख्या नहीं होती।

प्राकृतिक अशुभ नैतिक अशुभ के लिए दंड है :

कुछ ईश्वरवादियों का तर्क है कि मानवों ने संकल्प स्वातंत्र्य का दुरुपयोग किया तथा ईश्वर के बनाए नैतिक नियमों का उल्लघंन किया इसलिए वह क्रुद्ध होकर प्राकृतिक विपदाओं का सृजन किया। बाढ़, भूकंप, महामारी आदि प्राकृतिक अशुभ व्यक्तियों के पाप कर्मों की सजा है।

समीक्षा – यह तर्क भी अशुभ की समस्या का संतोषजनक समाधान प्रस्तुत नहीं करता। बाढ़, भूकंप, सुनामी, महामारी आदि प्राकृतिक विपदाओं से सबका नुकसान होता है। इनसे साधु-असाधु, नैतिक-अनैतिक सभी तरह के लोगों को कष्ट उठाना पड़ता है। और फिर यह कहना कि ईश्वर क्रुद्ध होकर व्यक्तियों के पापों की सजा देता है एक परम दयालु ईश्वर की अवधारणा के विपरीत है। क्या ईश्वर ऐसी नैतिक व्यवस्था नहीं बना सकता जिसका उल्लंघन ही नहीं हो?

अशुभ प्रगति और विकास का मार्ग प्रशस्त करता है :

कुछ ईश्वरवादियों का कहना है कि अशुभ और दुःख से मुक्ति के प्रयासों से व्यक्तित्व के विकास और मानवता की उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन की कमियों को दूर करने के प्रयासों से बड़े-बड़े पुरुषार्थों की सिद्धि होती है, नये आविष्कार और खोज होते हैं। भूख और पीड़ा से व्यथित व्यक्ति भोजन की व्यवस्था करके तृप्ति के सुख की अनुभूति करता है। दुःख निवारण के प्रयत्नों में सफलता से व्यक्तित्व का विकास होता है।

समीक्षा – परंतु यह मत भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। दुःख और कष्ट हमेशा सकारात्मक प्रेरणा नहीं देते। भूख और अभाव में व्यक्ति अक्सर सामाजिक नैतिकता की तिलांजलि दे देता है। प्राकृतिक आपदाओं के दौरान व्यक्ति योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धांत से परिचालित हो सकते हैं क्योंकि तब अस्तित्व रक्षा एकमात्र उद्देश्य रह जाता है। ऐसे में समस्त नैतिक नियमों के विपरीत आचरण भी सही मान लिया जाता है।

अशुभ शुभ के मूल्य को बढ़ाने के लिए आवश्यक है :

अशुभ के माध्यम से शुभ का उचित मूल्यांकन हो पाता है। अंधकार के कारण हम उजाले के महत्व से परिचित हो पाते हैं। दुःख के कारण ही सुख की अनुभूति में प्रगाढ़ता आती है। शुभ इस लिए है कि अशुभ है। अशुभ के बिना शुभ की संकल्पना असंभव है।

समीक्षा – विरोधियों के सह अस्तित्व का यह सिद्धांत कुछ हद तक ठीक माना है लेकिन इसे अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता। जीवित रहने के सुख को भोगने के लिए मरने का दर्द भोगना जरूरी नहीं है। फिर वही प्रश्न खड़ा हो जाता है कि क्या ईश्वर ऐसी दुनिया का सृजन नहीं कर सकते जिसमें अशुभ के बिना भी शुभ का अस्तित्व हो।

अशुभ अपूर्ण शुभ है

यह हीगेल जैसों का सिद्धांत है। जैसे अधूरा चित्र कुरूप हो सकता है वैसे ही अपूर्ण शुभ अशुभ होता है। यह अपूर्ण शुभ प्रत्यय के वस्तुगत विकास के किसी दौर में पूर्ण शुभ सिद्ध होगा।

समीक्षा – हीगेल का उक्त सिद्धांत स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्या बाढ़, भूकंप, महामारी, सामाजिक अन्याय आदि अशुभ को इस आधार पर स्वीकार कर लिया जाए कि यह सब अधूरे शुभ हैं और बाद में पूर्णतः शुभ सिद्ध होंगे? नहीं न। और फिर अगर अशुभ अपूर्ण शुभ हो सकता है तो फिर उसी तरीके से शुभ को भी तो अपूर्ण अशुभ माना जा सकता है। यह बहुत अप्रिय स्थिति होगी।

जो हमारे लिए अशुभ है वह किसी के लिए शुभ है

जैसे कार्बन-डाई-ऑक्साइड हमारे लिए विष है लेकिन यह गैस सायनोबैक्टिरिया के लिए जीवन वायु है। कोविड-19 विषाणु मानवों के लिए अशुभ है लेकिन यह अन्य जीव-जंतुओं के लिए वरदान हो सकता है।

समीक्षा – यह एक तरह से समस्या से पलायन का प्रयत्न है। किसी भी समस्या का मानवीय परिप्रेक्ष्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण पहलू है। यह कहना कि मानवों के लिए जो अशुभ प्रतीत होता है वह मानवेतर जगत के लिए शुभ है स्वीकार नहीं किया जा सकता।

अशुभ मिथ्या है

यह सर्वेश्वरवादियों और प्रत्ययवादियों का मत है। जब सब कुछ ईश्वर है तो अशुभ भी परम शुभ ईश्वर की अभिव्यक्ति होने से तत्वत: शुभ है, उसमें जो अशुभ प्रतीत होता है वह मिथ्या है।

समीक्षा – इस सिद्धांत में अशुभ की समस्या की व्याख्या करने के बजाय अशुभ के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर दिया गया है। लेकिन अशुभ की समस्या व्यवहारिक जीवन की घोर वास्तविक परिघटना है इसे तर्क या तत्त्वमीमांसा के आधार पर भी अस्वीकार करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

उपसंहार

यदि ईश्वर परम दयालु और सर्वशक्तिमान है तो उसके द्वारा रचित इस विश्व में अशुभ का अस्तित्व क्यों है? या तो ईश्वर दयालु नहीं है या फिर वह सर्वशक्तिमान नहीं है। यह ईश्वरवादियों के लिए बहुत बड़ी समस्या है। इस समस्या का संतोषजनक समाधान अब तक किसी भी ईश्वरवादी द्वारा प्रस्तुत नहीं किया जा सका है।

सार-संक्षेप

अशुभ की समस्या धर्म दर्शन का एक महत्वपूर्ण विषय है। इस विश्व में अशुभ का सदा सर्वदा अस्तित्व रहा है। बाढ़, भूकंप, रोग, महामारी आदि के रूप में प्राकृतिक आपदाओं के कारण मानव शुरू से ही दुःख और मृत्यु को प्राप्त होते रहे हैं। इसी तरह व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले पाप या कुकर्म से भी मानवों को कष्ट भोगना पड़ता है।

तो समस्या यह है कि एक सर्वशक्तिमान और परम दयालु, न्यायप्रिय ईश्वर के होते हुए दुनिया में अशुभ के अस्तित्व में होने की उचित व्याख्या कैसे की जाए? यह ईश्वरवादियों के लिए बहुत बड़ी चुनौती रही है। ईश्वरवादी इसका अलग अलग उत्तर देते रहे हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए कुछ समाधान पर हम यहां विचार करेंगे।

  • अशुभ संकल्प की स्वतंत्रता के दुरुपयोग के परिणाम हैं : व्यक्तियों ने ईश्वर प्रदत्त संकल्प की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके अशुभ और बुराई को चुना है। इसलिए अशुभ के लिए मानव जिम्मेदार है, ईश्वर नहीं। यह सिद्धांत अधिक से अधिक नैतिक अशुभ की व्याख्या करता है; बाढ़, भूकंप आदि प्राकृतिक अशुभ की नहीं।
  • प्राकृतिक अशुभ नैतिक अशुभ के लिए ईश्वर द्वारा दंड है। इस मत के अनुसार बाढ़, भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाएं व्यक्तियों के पापों के लिए ईश्वर द्वारा दिया जाने वाला दंड होता है परंतु नैतिक नियमों का उल्लघंन तो कुछ लोग ही करते हैं लेकिन प्राकृतिक आपदाओं से बुरे व्यक्तियों के साथ साथ अच्छे लोगों को भी कष्ट उठाना पड़ता है।
  • अशुभ प्रगति और विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। दुखों और कष्टों से मुक्ति के मानवीय प्रयासों से व्यक्तियों और मानवता का कल्याण होता है। लेकिन यह सिद्धांत भी संतोषजनक समाधान नहीं करता। दुःख और पीड़ा में अनेक व्यक्ति अनैतिक कदम भी उठाते हैं।
  • अशुभ शुभ के मूल्य को बढ़ाने के लिए आवश्यक है। अंधकार है तो उजाले की कद्र है। मृत्यु होती है तभी जीवन स्पृहणीय है।
  • क्या ईश्वर बिना दुःख और कष्ट के मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकता?
  • जो हमारे लिए अशुभ है वह किसी के लिए शुभ है। जैसे कोविड 19 विषाणु मानवों के लिए अशुभ है लेकिन मानवेतर जगत के लिए यह शुभ हो सकता है। परंतु मानवीय पक्ष की अवहेलना करने वाले किसी भी विचार को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
  • अशुभ अपूर्ण शुभ है। अशुभ भविष्य का शुभ है या फिर अप्रत्यक्ष शुभ है। ईश्वरवादियों का यह समाधान भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। अशुभ अशुभ ही होता है।
  • अशुभ मिथ्या है। सर्वेश्वरवादियों का कहना है कि सब कुछ ईश्वर की अभिव्यक्ति है इसलिए अशुभ तात्विक रूप से मिथ्या है। इसे समस्या का हल न देकर उसे टालने का प्रयास कहा जा सकता है।
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