गरम दल

गरम दल का उदय

1885 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई थी। शुरूआती दौर में कांग्रेस ने छोटी-मोटी राजनीतिक और प्रशासनिक सुधारों की मांगें रखी। कांग्रेस के प्रारंभिक नेताओं ने बहुत ही उदार और सांवैधानिक तरीकों से कार्य किया फिर भी उनकी अधिकांश मांगों को पूरा नहीं किया गया। उल्टे ही सरकार शांतिपूर्ण राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के लिए दमनात्मक कार्रवाई करने में लगी रही। इससे उदारवादियों की विचारधारा और कार्यप्रणाली से लोगों का मोहभंग होने लगा। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम में वर्षों में कांग्रेस के अंदर ही एक नये लड़ाकू गुट का उदय हुआ जो अपनी मांगों और कार्यप्रणाली में पुराने उदारवादियों की अपेक्षा अधिक उग्र और जुझारू थे। इस गुट को गरम दल या उग्रपंथ कहा गया।

गरमपंथी नेतृत्व

महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक, पंजाब में लाला लाजपत राय, बंगाल में विपिन चन्द्र पाल, अरविंद घोष, बारींद्र कुमार घोष, बंकिमचंद्र चटर्जी, अश्वनी कुमार दत्ता, एस चक्रवर्ती, बीपी दास आदि गरमपंथी नेता थे।

गरम दल या उग्रवाद के उदय के कारण

बीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्ष उथल-पुथल वाले थे। इस समय राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जो भारतीय राजनीति में उग्रवाद के उदय में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सहायक सिद्ध हुईं। गरमपंथी राष्ट्रवाद के उदय के निम्नलिखित मुख्य कारण माने गए हैं :-

  1. नरमपंथियों की कार्य-प्रणाली और उपलब्धियों से असंतोष :- ब्रिटिश शासन व्यवस्था की सीमा में रहकर जिन मांगों की पूर्ति की आशा की गई थी, उनकी पूर्ति नहीं होने से भारतीयों का मोहभंग होने लगा। बीस साल तक आवेदन और निवेदन करने के बाद भी अंग्रेजों ने उदारवादियों की मांगों को पूरा नहीं किया। इससे अंग्रेजों की न्यायप्रियता और भारतीयों के हितैषी होने का भ्रम दूर हो गया। हालांकि बाद में उदारवादियों ने भी शुद्ध प्रशासनिक सुधारों की जगह स्वराज्य को अपना अंतिम उद्देश्य घोषित किया लेकिन इसे प्राप्त करने के लिए वे गैर-संवैधानिक तरीके अपनाने की बात सोच भी नहीं सकते थे। बहिष्कार और स्वदेशी को वे केवल बंगाल तक सीमित रखना चाहते थे; इसीलिए भिन्न राजनीतिक विचारधारा और कार्यनीति वाले लोगों के एक नये दल का उदय एवं विकास हुआ।
  2. प्लेग और अकाल :- 1896-97 और 1899-1900 के भयंकर अकाल तथा महाराष्ट्र में प्लेग के कारण फैले महामारी से लाखों लोगों की मौत हो गई। सरकारी राहत कार्य बहुत ही कम, धीमा और कष्टकारी था। जनता की नजर में अकालों का कारण सरकार की दोषपूर्ण नीतियां थी। तिलक ने सरकारी उपायों की तीव्र आलोचना की। कुछ ही दिनों बाद क्रांतिकारियों ने पूना में लेफ्टिनेंट आयर्स्ट और स्वास्थ्य अधिकारी रैंड की गोली मारकर हत्या कर दी। इस सिलसिले में चाफेकर बंधुओं को गिरफ्तार किया गया तथा उन्हें फांसी दी गई। सरकार की यह राय थी कि तिलक के सरकार विरोधी प्रचार से ही इस आतंकवादी कार्रवाई के लिए माहौल तैयार हुआ।
  3. अंग्रेजी शासन के शोषक स्वरुप की पहचान :- अंग्रेजी शासन के शोषक चरित्र को कांग्रेस के प्रारंभिक उदारवादी नेताओं ने ही तार्किक आधार पर उजागर कर दिया था। रमेश चंद्र दत्त के अंग्रेजों के द्वारा भारत में लागू की गई भूमि कर व्यवस्था का ठीक ठीक मूल्यांकन किया। सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने सिविल सेवाओं आदि अच्छे पदों से भारतीयों ​को वंचित किए जाने का विरोध किया। रानाडे और विशेषकर दादा भाई नौरोजी ने अपने आर्थिक शोध के माध्यम से तथ्यात्मक रूप से यह प्रमाणित किया कि कैसे और किस मात्रा में भारतीय धन का इंग्लैंड की ओर पलायन हो रहा है। लेकिन आश्चर्य की बात है कि उदारवादियों ने बदलती हुई परिस्थितियों में भी जन आंदोलन छेड़ने तथा संघर्ष का गैर संवैधानिक तरीके अपनाने से मना कर दिया। ऐसे में नये उग्र दल द्वारा सीधे जनता से जुड़ना भारतीय राजनीति में नयी शुरुआत थी।
  4. अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का प्रभाव :- 1896 में इथियोपिया के हाथों इटली की पराजय और 1905 में जापान की रुस पर विजय इन दोनों घटनाओं ने यूरोपियों की श्रेष्ठता और अजेय होने का भ्रम तोड़ दिया।
  5. लार्ड कर्जन और बंगाल विभाजन :- लार्ड कर्जन के शासनकाल की सरकारी नीतियों के कारण जनता में असंतोष की भावना और भी भड़की। कर्जन ने कलकत्ता कार्पोरेशन एक्ट के द्वारा स्थानीय स्वशासन को हानि पहुंचाया। इसी प्रकार विश्वविद्यालय अधिनियम के द्वारा उच्च शिक्षा को सीमित करने का प्रयास किया। लेकिन कर्जन का सबसे अधिक घृणित कार्य था बंगाल का विभाजन। बंगाल विभाजन का कारण प्रशासनिक सुविधा बताया गया लेकिन वास्तव में बंगाल को धार्मिक आधार पर पूर्वी बंगाल और पश्चिम बंगाल में बांटा गया ताकि राष्ट्रीय आंदोलन के मुख्य केंद्र बंगाल में धार्मिक आधार पर फूट डालकर कर राष्ट्रीय ​जागरण के उभार को कम किया जा सके। पूरे देश और कांग्रेस तथा बंगाल के लोगों के घोर विरोध के बाद भी बंगाल विभाजन को कार्यरूप दिया गया इससे यह स्पष्ट हो गया कि विदेशी सरकार जनमत का घोर निरादर करती है और ऐसी सरकार निवेदन आवेदन की भाषा समझ ही नहीं सकती​। इसलिए  बहिष्कार और स्वदेशी के नये हथियारों से लैस गरम दल को देश की जनता ने हाथों-हाथ लिया।

गरम दल के उद्देश्य

उग्रपंथथियों का एकमात्र उद्देश्य था स्वराज्य की प्राप्ति। वे छोटे-छोटे मोटे राजनीतिक और प्रशासनिक सुधारों की बात नहीं करते थे अत: वे सुधारवादी नहीं थे। वे परिवर्तन वादी थे। जैसा कि विपिन चन्द्र पाल ने कहा था कि देश को नये सुधारों की नहीं बल्कि पुनर्गठन की आवश्यकता है। इनका यह असंदिग्ध विश्वास पूरी तरह सत्य था कि शोषणकारी विदेशी सरकार से जनता के कल्याण और भारत के विकास की आशा करना व्यर्थ है।

तिलक ने कहा था :- “स्वराज्य के बिना कोई सामाजिक सुधार नहीं हो सकते, न कोई औद्योगिक प्रगति, न कोई शिक्षा और न ही राष्ट्रीय जीवन की परिपूर्णता।” इसीलिए तिलक ने नारा दिया था :- स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा।

अरविंद घोष के अनुसार राजनीतिक स्वतंत्रता एक राष्ट्र का जीवन श्वास है।

लाला लाजपत राय के अनुसार दास जाति की कोई आत्मा नहीं होती…। इसलिए देश के लिए स्वराज्य परम आवश्यक है और सुधार अथवा उत्तम राज्य इसके विकल्प नहीं हो सकते।

चूंकि गरम दल वाले साम्राज्यवादी ब्रिटेन के स्वार्थों उसके द्वारा शासित भारत के हितों को परस्पर विरोधी मानते थे। इसीलिए उन्होंने केवल प्रशासनिक सुधारों या नौकरियों के भारतीय करण की मांग नहीं की। उनका कहना था कि स्वराज्य या राजनीतिक सत्ता ही मूलभूत सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रगति ला सकती है।

यहां पर ध्यान रखने की बात यह है कि गरम दल के अरविंद घोष जैसे कुछ विचारकों के लिए स्वराज्य का अर्थ था विदेशी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्रता जबकि उदारवादियों ने स्वराज्य को साम्राज्य के अंदर ही औपनिवेशिक स्वशासन के अर्थ में लिया था।

विचारधारा

गरम दल के नेताओं ने भारत के इतिहास से प्रेरणा लेकर लोगों में गौरव और स्वाभिमान की भावना जगाने का प्रयास किया। उदारवादी लोग यूरोपिय विचारधारा विशेषकर ब्रिटिश संस्कृति से प्रभावित नजर आते हैं लेकिन उग्रपंथथियों ने इस प्रकार के सांस्कृतिक आत्मसमर्पण की निंदा करते हुए कहा कि इससे भारतीयों में हीनभावना उत्पन्न होगी और स्वराज्य की लड़ाई के लिए आवश्यक राष्ट्रीय गौरव का उत्थान नहीं हो पाएगा। इसीलिए​ गरम दलीय नेताओं ने भारत के प्राचीन इतिहास विशेषकर वेदकालीन और गुप्त काल के इतिहास से प्रेरणा लेकर कार्य किया। उन्होंने सम्राट अशोक, चंद्रगुप्त के द्वारा भारत को महान देश बनाने के कार्य को लोगों के सामने रखा। इसी प्रकार मुगलों के विरुद्ध महाराणा प्रताप और शिवाजी के राजनीतिक संघषों को विदेशियों के खिलाफ आजादी की लड़ाई के रूप में वर्णित किया गया। तिलक ने महाराष्ट्र में शिवाजी उत्सव के द्वारा राजनीतिक चेतना जगाने का कार्य किया।

गरम दल के लोग पाश्चात्य बुद्धिवाद और उदारवाद के बजाय भारतीय अध्यात्म और दर्शन से प्रेरित थे। बंगाल के गरमपंथी और उग्रवादी स्वामी विवेकानंद के नये व्यवहारिक वेदांत से प्रभावित होकर कार्य कर रहे थे, तो तिलक ने गीता के निष्काम कर्म के सिद्धान्त के आधार पर राष्ट्रीय मुक्ति के लिए हिंसक-अहिंसक हर तरह की कार्रवाई को उचित ठहराया। तिलक ने महाराष्ट्र में गणपति उत्सव की परंपरा को पुनर्जीवित कर राजनीतिक जागरण के लिए इसका उपयोग किया। बंगाल में यही काम दुर्गा पूजा के माध्यम से किया गया।

गरम दल वालों ने यह ठीक ही पहचाना था कि नरमपंथियों की बहुत सी गलत धारणाओं का कारण उनके द्वारा साम्राज्यवादी ब्रिटेन और उसके उपनिवेश भारत ​के संबंधों की गलत व्याख्या थी। उदारवादी भारत में ब्रिटिश शासन को दैवीय वरदान मानते थे तथा ब्रिटेन को भारत का सहयोगी मानते थे। जो कि गलत था। ब्रिटेन से यह आशा करना कि वह भारत का अनियंत्रित और स्वतंत्र औद्योगिक विकास होने देगा या उच्च पदों का भारतीयकरण करेगा या मूलभूत राजनीतिक सुधारों को भारत में लागू करेगा; सही नहीं था। ब्रिटेन अपने देश के प्रजातांत्रिक विचारों​ और परंपरा को भारत पर स्वेच्छा से या निवेदन करने मात्र से लागू करने वाला नहीं था। इसलिए तिलक की यह सही सोच थी कि राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना होगा।… ये अधिकार सरकार पर अधिकाधिक दबाव डाल कर ही हासिल किए जा सकते हैं।

कार्य-प्रणाली

स्वदेशी और बहिष्कार ये दो गरमपंथियों की कार्य-प्रणाली के मुख्य अंग थे। स्वदेशी चीजों और विचारों को अपनाना और विदेशी वस्तुओं और शासन का बहिष्कार करना स्वराज्य की लड़ाई में इनके मुख्य हथियार थे। स्वदेशी के बारे में लाला लाजपत राय ने कहा था :- मैं इसी में देश की मुक्ति समझता हूं। मेरे ख्याल से स्वदेशी को सारे संयुक्त भारत का सम्मिलित धर्म होना चाहिए। तिलक ने भी देश के औद्योगिक और सामान्य आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए दृढ़ता पूर्वक स्वदेशी को अपनाना आवश्यक माना।

स्वदेशी की अवधारणा में पूर्णता तब आती है जब विदेशी चीजों का बहिष्कार भी किया जाए। उग्रपंथथियों नेताओं ने बहिष्कार की अवधारणा और रणनीति को सांगठनिक रूप दिया। बहिष्कार में केवल ब्रिटिश माल के परित्याग की बात नहीं थी। बल्कि इसका कार्यक्रम बहुत व्यापक था। इसमें उपाधियों, पदों और विधानपरिषदों का बहिष्कार भी शामिल था। बहिष्कार राष्ट्रवादियों के हाथ में बहुत बड़ा अस्त्र था। बहिष्कार और स्वदेशी के द्वारा ही बंगाल का विभाजन रद्द कराया जा सका था।

गरम दल की उपलब्धियां

सबसे पहली और प्रमुख बात यह है कि गरम दल के प्रयासों से भारत का राष्ट्रीय आंदोलन एक नये युग में प्रवेश  किया। ये गरमपंथी अपनी मांगों और कार्यप्रणाली में अपने पूर्ववर्ती उदारवादियों की अपेक्षा अधिक जुझारू  थे। ये पेशेवर राजनीतीज्ञ सिद्ध हुए। उदारवादी चरण में कांग्रेस वर्ष में एक बार अधिवेशन करके शांत हो जाती थी। जबकि इन्होंने लगातार राजनीति गतिविधियां जारी रखीं। देश के लिए पहली बार जेल जाने वाले कांग्रेसी नेता तिलक ही थे। गरम दल वालों ने राष्ट्रीय आंदोलन को जन-आंदोलन  बनाने की भरसक कोशिश की। इन्होंने कांग्रेस को निम्न मध्यम वर्ग से जोड़ने में सफलता पाई। इसी प्रकार गरम दल वालों ने ही पहली बार जनता के अधिकारों की बात की। पुराने उदारवादियों ने केवल शिक्षित बुद्धिजीवियों के लिए राजनीतिक सुधारों की बात की थी लेकिन गरमपंथियों ने जनता के अधिकारों के लिए सक्रिय और पूर्णकालिक राजनीति  के माध्यम से अपना सबकुछ अर्पित कर दिया।

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2 thoughts on “गरम दल”

    1. मैं भी गरम दल को समर्थन करता हूं।
      और हमे भी नहीं लगता है कि ब्रिटिश सरकार हमे नरम दल के मार्ग से कुछ भी अधिकार देती।

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