जाॅर्ज बर्कले का आत्मगत प्रत्ययवाद

जाॅर्ज बर्कले का आत्मगत प्रत्ययवाद

जाॅर्ज बर्कले (1685-1753) ने जाॅन लाॅक के अनुभववाद आगे बढ़ाया। लाॅक ने ज्ञान की प्रक्रिया और स्वरूप के बारे में अनुभववादी सिद्धांत की जोर-शोर से शुरुआत की थी। उनके अनुसार हमारा समस्त ज्ञान इंद्रिय अनुभव से प्राप्त होता है। मन में अनुभव से पहले कुछ भी नहीं होता। जन्मजात प्रत्यय या सहज प्रत्यय की धारणा भ्रामक है। अनुभव के द्वारा हमें वस्तुओं के संवेदन से प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। हम वस्तुओं को नहीं जान सकते। उनसे उत्पन्न संवेदन के प्रत्ययों को जानते हैं।

लेकिन लाॅक वस्तुओं और उनके गुणों की सत्ता को स्वीकार करके अपनी प्रणाली का अतिक्रमण कर जाते हैं। उनके अनुसार वस्तुओं में दो तरह के गुण होते हैं। मूल गुण और गौण गुण। मूल गुण पदार्थ के वस्तुगत गुण हैं जबकि गौण गुण अनुभवकर्ता के आत्मगत गुण हैं। इस तरह लाॅक अनुभववाद से भटक जाते हैं। जब हम केवल प्रत्ययों को जान सकते हैं तो फिर मूल गुणों और गौण गुणों का भेद कैसा? फिर हम केवल संवेदन के प्रत्ययों को जान सकते हैं। उससे आगे हमारे ज्ञान की पहुंच नहीं है। हमारे पास संवेदनों के अधिष्ठान के रूप में किसी वस्तु या द्रव्य को मानने का कोई आधार नहीं है।

भौतिक वाद का खंडन : हम वस्तुओं को नहीं प्रत्ययों को जानते हैं।

जाॅर्ज बर्कले ने जाॅन लाॅक के विचारों में उक्त कमियों को ध्यान में रखते हुए अनुभववाद को आगे बढ़ाया। बर्कले के अनुसार हमें अनुभव सिर्फ प्रत्ययों का होता है, भौतिक वस्तुओं का नहीं। इस तरह तथाकथित भौतिक वस्तुओं को मानने का हमारे पास कोई आधार नहीं है। अनुभव या ज्ञान एक मानसिक प्रक्रिया है। ज्ञान का विषय ज्ञान की प्रक्रिया से अलग नहीं हो सकता।

बर्कले के अनुसार हम वस्तुओं को नहीं विचारों या प्रत्ययों को जानते हैं। इस तरह वे भौतिकवाद का खंडन करते हैं तथा प्रत्ययवाद को स्वीकार करते हैं। बर्कले का प्रत्ययवाद आत्मगत प्रत्ययवाद कहलाता है। सम्पूर्ण विश्व विचार या प्रत्यय स्वरूप है। जो कुछ भौतिक या जड़ प्रतीत होता है उसके मूल में भी विचार या प्रत्यय होते हैं। बर्कले के अनुसार यह विश्व आत्मा में उत्पन्न होने वाले प्रत्ययों की प्रतीतियां हैं। इसलिए यह आत्मगत प्रत्ययवाद कहलाता है।

“इसे इस्ट परसिपी” (“Esse Est Percipi”)

यह बर्कले के आत्मगत प्रत्ययवाद का सूत्र वाक्य है। इसे इन रूपों में भी रखा जाता है।

“सत्ता दृश्यता है।” अथवा

“दृश्यते इति वर्तते।” या

“जो दिखता है वह होता है।” या

“जिसका प्रत्यक्ष होता है, वह है।” या

“सत्ता अनुभव मूलक है।”

हम केवल अपने विचारों या प्रत्ययों के देख पाते हैं अतः केवल उनकी सत्ता मानी जानी चाहिए। हमारा ज्ञान प्रत्ययों के समूहों के अलावा कुछ नहीं है। हम किसी भौतिक पदार्थ या वस्तु को नहीं जान सकते। बाह्य जगत की वस्तुएं क्या हैं? इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि वे रंग, रूप, गंध, कठोर, मुलायम आदि गुणों के समूह हैं। इन गुणों के अतिरिक्त हम किसी पदार्थ या भौतिक वस्तु को नहीं जान सकते। ये गुण हमारी संवेदनाओं या संवेदनात्मक अनुभूतियों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। हम केवल गुणों को जानते हैं। गुणों के आधार स्वरूप किन्हीं वस्तुओं को नहीं जान सकते।

आत्मा का ज्ञान

अनुभव तो केवल प्रत्ययों का होता है। लेकिन हमें आत्मा के प्रत्यय नहीं मिलते। इसलिए आत्मा को जानने का अलग तरीका है। हम आत्मा को आंतरिक अनुभव या अंतर्बोध से जान सकते हैं। आत्मा का अनुभव इंद्रिय अनुभव से भिन्न है। आत्मा इंद्रियों के विषयों से भिन्न है। यह प्रत्ययों या विचारों या विज्ञानों का संघात भी नहीं है, जैसा कि बौद्ध मानते हैं। परंतु अनुभव आत्मा में ही होता है। आत्मा आध्यात्मिक द्रव्य है। प्रत्ययों का अधिष्ठान है। विचारों की आधारभूमि है। आत्मा के बिना विचारों या प्रत्ययों की कल्पना नहीं की जा सकती। इस तरह बर्कले के आत्मगत प्रत्ययवाद के अनुसार केवल आत्मा और उसके प्रत्यय परमार्थ हैं। 

परम आत्मा या ईश्वर

बर्कले के इस सिद्धांत में तमाम कमियां हैं इसलिए इसमें वे संशोधन करते रहे। उनके इस सिद्धांत में वस्तु की सत्ता और उसके ज्ञान में अंतर नहीं है। सत्ता ज्ञानमूलक है। ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है इसलिए सत्ता अनुभव मूलक है। अतः जब तक अनुभव होता है तब तक उसका अस्तित्व है। तो क्या जब अनुभव नहीं हो रहा होता है तो प्रतीतिमान वस्तु तिरोहित हो जाती है?

मान लीजिए यह किताब इस मेज पर है। मुझे अभी  इनका प्रत्यक्ष हो रहा है। अगर मैं इस कमरे से बाहर चला जाऊं तो मुझे इनका प्रत्यक्ष नहीं हो पाएगा। क्या ऐसे में यह मेज और उस पर रखी किताब का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा? और फिर जब मैं इस कमरे में वापस आऊंगा तो इनको मैं वहीं पाऊंगा। क्या इन दोनों प्रत्यक्षों के बीच में यह मेज और किताब सही में नहीं रहती? वैसे ही जंगल के फूल को किसी ने नहीं देखा तो क्या उसकी सत्ता नहीं है?

बर्कले अनुभवकर्ता आत्मा और उसके प्रत्ययों की सत्ता को मानते हैं। उनके अनुसार जब हम किसी वस्तु को नहीं देख रहे होते तो कोई अन्य आत्मा उसका प्रत्यक्ष कर रही होती है। जब कोई नहीं देख रहा होता है तब परम आत्मा ईश्वर उसे देख रहा होता है। इस तरह भौतिक जगत का खंडन करने के साथ बर्कले आत्मगत प्रत्ययवाद की स्थापना करते हैं।

उनके अनुसार प्रत्यय सत् है और वह आत्मा में है। यहां आत्मा से तात्पर्य जीवात्मा और परमात्मा दोनों से है। बहुत से प्रत्यय जीवात्मा से बाहर हैं लेकिन परमात्मा के बाहर नहीं हैं। इसलिए जब मैं किसी विषय का प्रत्यक्ष नहीं कर रहा होता तब भी उसका अस्तित्व रहता है क्योंकि तब परम आत्मा ईश्वर उसका प्रत्यक्ष कर रहा होता है।

आलोचनात्मक समीक्षा

बर्कले के विचारों में भी वही कमियां हैं जो लाॅक के विचारों में है। बर्कले ने भी अनुभववादी पद्धति का पूरा पालन नहीं किया। वे जिन तर्कों के आधार भौतिक जगत की वस्तुओं के अस्तित्व का खंडन करते हैं उन्हीं के आधार पर आत्मा की धारणा को भी निरस्त किया जा सकता है। डेविड ह्यूम ने अनुभववाद को उसकी परिणति तक पहुंचाया। उन्होंने दिखाया कि हम किसी आत्मा को नहीं जानते। हमें केवल सुख-दुःख आदि की अनुभूति होती है। इनके अधिष्ठान के रूप में हमें किसी आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता।

इस तरह बर्कले के विचारों में आत्मसंगति का अभाव है। एक ओर वह भौतिक जगत का निषेध करते हैं दूसरी ओर उसे ईश्वर के मन का प्रत्यय बताते हैं। इस तरह यह विश्व आत्मगत नहीं रहकर परमात्मगत हो जाता है। ऐसे में उनका प्रत्ययवाद आत्मगत नहीं रह जाता।

बर्कले ने ईश्वर के अस्तित्व को मान लिया है। परंतु वह न तो संवेदन के प्रत्ययों का विषय है और न ही स्व-संवेदन का। अनुभववादी पद्धति किसी ईश्वर को मानने की अनुमति नहीं देती। इसलिए ह्यूम कारण-कार्य संबंध, पदार्थ, आत्मा, परमात्मा सभी का निषेध करते हैं।

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