जॉन लॉक : अनुभववाद, अनुभववादी ज्ञानमीमांसा

जॉन लॉक : अनुभववाद, अनुभववादी ज्ञानमीमांसा

जॉन लॉक (1632-1704) ब्रिटिश दार्शनिक तथा विचारक थे। उन्हें आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में अनुभववाद का जनक माना जाता है।

अनुभववाद

अनुभववाद ज्ञानमीमांसा से संबंधित सिद्धांत है। इसके अनुसार हमें ज्ञान इंद्रिय अनुभव से प्राप्त होता है। अनुभव से पहले मन में कुछ नहीं होता। जन्म के समय बच्चे का मन बिल्कुल खाली होता है, कोरी तख्ती की तरह। लाॅक के शब्दों में कहें तो ‘टेब्युला राशा‘! लाॅक ने बुद्धिवादियों के जन्मजात सहज प्रत्यय के सिद्धांत का खंडन किया है। देकार्ते आदि बुद्धिवादियों के अनुसार हमारे मन में जन्म से ही कुछ प्रत्यय या विचार होते हैं। ये अनुभव से पहले होते हैं। इन्हीं अनुभवपूर्व प्रत्ययों से हमारा समस्त ज्ञान निगमित होता है। ऐसा ज्ञान अनिवार्य तथा निश्चित होता है। 

बुद्धिवादियों के विपरीत लाॅक आदि अनुभववादियों ने किसी निश्चित और अनिवार्य ज्ञान की संभावना से इंकार कर दिया। उनके अनुसार वास्तविक ज्ञान अनुभव से आता है और ऐसा ज्ञान प्रसंभाव्य ज्ञान होता है। अनुभवादियों के अनुसार गणित के ज्ञान पुनरुक्ति मात्र होते हैं। जब यह कहा जाता है कि दो और दो चार होता है तो कोई नई बात नहीं कही जाती। चार वही बात है जो दो और दो में निहित है। उसी बात को दूसरे तरीके से कह दिया गया है। 

चूंकि ऐसा ज्ञान पुनर्कथन मात्र होता है इसलिए इनसे हमारे ज्ञान में कोई वृद्धि नहीं होती क्योंकि तब हम कोई नई बात नहीं कह रहे होते हैं। गणित का ज्ञान वास्तविक ज्ञान भी नहीं है। बिंदु, रेखाएं आदि अवधारणाऐं वास्तविक जगत में अस्तित्व नहीं रखते। ज्ञान में वास्तविकता अनुभव से आती है या यह कहना बेहतर होगा कि अनुभव से प्राप्त ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। भौतिकी आदि प्राकृतिक विज्ञानों का ज्ञान वास्तविक ज्ञान होता है लेकिन ये संभाव्य ज्ञान हैं। इसमें निश्चयात्मकता नहीं होती। ये भी एक तरह से अटकल या अनुमान हैं लेकिन ऊँचे दर्जे का।

जन्मजात प्रत्ययों का खंडन

“हमारे मन या बुद्धि में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो पहले इंद्रियों में नहीं थी।” – लॉक।

लॉक।

बुद्धिवादियों के अनुसार मन या बुद्धि में कुछ प्रत्यय या विचार जन्म से ही होते हैं। ये अनुभव से पहले हैं। इन सहज प्रत्ययों से हमारे समस्त ज्ञान का निगमन होता है। जाॅन लाॅक बुद्धिवादियों की इस मान्यता का खंडन करते हैं। लाॅक के अनुसार हमारा समस्त ज्ञान इंद्रिय अनुभव से प्राप्त होता है। अतः मन में किसी जन्मजात या सहज प्रत्यय को विद्यमान नहीं माना जा सकता। जब किसी प्रत्यय को अनुभवजनित सिद्ध नहीं कर सकते तो उन्हें अनुभव-पूर्व या जन्मजात मान लिया जाता है। यह रूढ़िवाद या अंधविश्वास है।

बुद्धिवादियों के अनुसार आत्मा कुछ स्वयंसिद्ध प्रत्ययों के साथ दुनिया में आती है। तादात्म्य नियम, विरोध का नियम आदि अनिवार्य और सार्वभौमिक नियम जन्मजात हैं। इनका ज्ञान इंद्रिय अनुभव पर आधारित नहीं है। देकार्ते के अनुसार आत्मा और ईश्वर का बोध भी सहज ज्ञान के द्वारा होता है।

जन्मजात प्रत्ययों के विरुद्ध लाॅक की एक आपत्ति यह है कि यदि ये प्रत्यय जन्मजात होते तो इनका ज्ञान बालकों, पागलों और मूर्खों को भी होता।

यदि कुछ प्रत्यय सहज या जन्मजात हैं तो ये सभी देशों और समयों में एक समान होने चाहिएं। परंतु ऐसा नहीं होता। ईश्वर, आत्मा आदि की अवधारणा के बारे में विभिन्न देशों और कालों में अलग-अलग धारणाएं होती हैं। यहां तक कि एक ही समय और स्थान में भी मतभेद देखे जाते हैं। जिन्हें अक्सर जन्मजात प्रत्यय कहा जाता है उनके बारे में अलग-अलग संप्रदायों में भयंकर विरोध और कटुता की भावनाएं होती हैं।

इसी तरह नैतिक नियम भी जन्मजात प्रत्यय नहीं हैं। इनमें भी देश और काल के अनुसार भिन्नता देखी जाती है।

अगर ईश्वर और आत्मा का ज्ञान जन्मजात है तो फिर नास्तिक नहीं होने चाहिए। लेकिन नास्तिकों की पर्याप्त संख्या बताती है कि ये प्रत्यय जन्मजात नहीं होते।

इसी तरह अनेक समाज-विरोधी व्यक्ति और समूह नैतिक नियमों या आचरण के नियमों को नहीं मानते इसलिए ये भी जन्मजात प्रत्यय नहीं हैं।

इस तरह लाॅक के अनुसार कोई भी प्रत्यय जन्मजात नहीं होता। मन में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो पहले इंद्रियों में न हो। अतः लाॅक का मानना है कि जन्म के समय बच्चे का मन बिल्कुल खाली होता है। कोरा कागज़ या खाली तख्ती (टेब्युला राशा) की तरह।

ज्ञान कैसे होता है? अर्थात् ज्ञान की प्रक्रिया क्या है? ज्ञान कहां से प्राप्त होता है अर्थात उसके स्रोत और सामग्री क्या हैं? हमारे ज्ञान की सीमाएं क्या हैं? आदि के बारे में लाॅक ने विस्तार से समझाया है।

ज्ञान के स्रोत

लाॅक के अनुसार ज्ञान का निर्माण मन या आत्मा में प्रत्ययों से होता है। मन में प्रत्यय इंद्रिय अनुभव से आते हैं। इन प्रत्ययों के दो स्रोत हैं:- संवेदन एवं स्व-संवेदन। संवेदन के प्रत्यय इंद्रिय-अनुभव से प्राप्त होते हैं परंतु स्व-संवेदन मन के अनुभवों पर आधारित होते हैं। रूप, रस, गंध आदि के प्रत्यय इंद्रिय संवेदन के प्रत्यय हैं जबकि स्मृति, संवेग, कल्पना आदि आत्मसंवेदन (स्व-संवेदन) प्रत्यय हैं।

लाॅक ने सरल और जटिल दो तरह के प्रत्यय माने हैं। सरल प्रत्यय को मन इंद्रिय संवेदन और स्व-संवेदन के जरिए निष्क्रिय रहकर ग्रहण करता है। मिश्र या जटिल प्रत्ययों का निर्माण सरल प्रत्ययों को मिलाकर मन सक्रिय अवस्था में करता है। लाॅक ने सरल और जटिल प्रत्ययों के उप-प्रकारों की भी चर्चा की है।

ज्ञान का स्वरूप

लॉक के अनुसार प्रत्ययों के संबंधों को जानना ही ज्ञान है। प्रत्ययों के संबंध या ज्ञान के निम्नलिखित चार प्रकार हैं:-

  1. भिन्नता-अभिन्नता का ज्ञान :- जैसे अलग-अलग रंगों में भेद का ज्ञान।
  1. संबंधों का ज्ञान :- जैसे कारण-कार्य संबंध।
  1. सह-अस्तित्व का ज्ञान :- जैसे शक्कर का सफेद और मीठा होना।
  1. वास्तविक सत्ता का ज्ञान :- संवेदन से आगे वास्तविक वस्तुओं का ज्ञान जिनकी ये संवेदनाएं होती हैं।

ज्ञान के प्रकार

प्रातिभ ज्ञान :- दो प्रत्ययों के संबंधों का जब बिना तीसरे प्रत्यय की सहायता से ज्ञान होता है। इसे आनुभविक अंतर्दृष्टि कह सकते हैं जो बौद्धिक अंतर्दृष्टि पर आधारित नहीं है।

निदर्शनात्मक ज्ञान :- यह तीसरे प्रत्यय की सहायता से दो प्रत्ययों के संबंधों का ज्ञान है। गणित और तर्क शास्त्र से ऐसा ही ज्ञान मिलता है। निदर्शनात्मक ज्ञान का मूल प्रातिभ ज्ञान ही होता है चाहे इन दोनों के बीच मध्यवर्ती प्रत्ययों की संख्या कितनी ही लंबी क्यों न हो।

संवेदनात्मक ज्ञान :- वह ज्ञान जो वस्तुओं के गुणों से प्राप्त इंद्रिय संवेदन और मन से प्राप्त स्वसंवेदनों पर आधारित होता है। हमारे इंद्रिय संवेदनों की पहुंच द्रव्य के गुणों तक होती है। हम गुणों के प्रत्ययों को ही जानते हैं, द्रव्य को नहीं जान सकते।

ज्ञान की वैधता

ज्ञानमीमांसा में एक प्रश्न यह भी है कि ज्ञान की वैधता और अवैधता की कौन-कौन सी  कसौटियां हैं? लाॅक ने ज्ञान की वैधता के परीक्षण के लिए निम्नलिखित तीन आधार बताए हैं।

सत्यता/असत्यता (True/False) :- प्रत्यय अपने आप में ज्ञान नहीं है। प्रत्ययों का संबंध ज्ञान कहलाता है। ये संबंध प्रतिज्ञप्ति के रूप में व्यक्त किए जाते हैं। इसलिए प्रतिज्ञप्तियां सत्य या असत्य होती हैं प्रत्यय नहीं। यदि कोई प्रतिज्ञप्ति अनुभव से मिलने वाले प्रत्ययों की संवादी होती है तथा आत्मा इसके प्रति स्वीकृति देती है तभी वह सत्य है।

यथार्थता/अयथार्थता (Real/Fantastical) :- जब कोई प्रत्यय अपने आदि रूप के समान होता है तो वह वास्तविक या यथार्थ कहलाता है, अन्यथा नहीं। सरल प्रत्ययों और द्रव्य प्रत्ययों का ज्ञान यथार्थ होता है जबकि पर्याय प्रत्यय और संबंध प्रत्यय अयथार्थ होते हैं क्योंकि ये आद्य अनुभव में नहीं होते।

पर्याप्त/अपर्याप्त :- सरल प्रत्यय अपने आदि रूपों का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए पर्याप्त ज्ञान देते हैं। परंतु द्रव्य प्रत्यय द्रव्य का पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं करता इसलिए वह अपर्याप्त ज्ञान देता है।

ज्ञान की सीमाएं

स्रोत की दृष्टि से :- लॉक के अनुसार हमारे ज्ञान का स्रोत इंद्रिय अनुभव है। अनुभव हमें सिर्फ प्रत्ययों का होता है। हम वस्तुओं का वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते।

उत्पत्ति की दृष्टि से :- संवेदन और स्वसंवेदन ये दो ही ज्ञान की उत्पत्ति के आधार हैं। जन्मजात अनुभव पूर्व प्रत्ययों के आधार पर बौद्धिक ज्ञान का दावा सही नहीं है।

निश्चयात्मकता की दृष्टि से :- प्रातिभ ज्ञान निश्चयात्मक होता है लेकिन हमारा अधिकांश ज्ञान इंद्रिय संवेदन और स्वसंवेदन पर आधारित होते हैं। ये अनिश्चयात्मक होते हैं।

समीक्षा

लॉक से पहले पश्चिमी दर्शन में ज्ञानमीमांसा को अधिक महत्व नहीं दिया जाता था। पहली बार जाॅन लाॅक ने ज्ञानमीमांसा से संबंधित प्रश्नों पर विस्तार से विचार किया। बुद्धिवादियों ने तो द्रव्य, आत्मा, परम सत्ता आदि तत्त्वमीमांसीय समस्याओं पर विचार व्यक्त किए। लाॅक ने ज्ञानमीमांसा को दर्शन का केंद्र बिंदु बनाया। भारत में शुरू से ही ऐसा था। यहां तक कि चार्वाकों के चार महाभूतों और नश्वर आत्मा संबंधी विचार उनकी ज्ञान मीमांसा से फलित होते हैं। न्याय दर्शन का अधिकांश ज्ञानमीमांसा से संबंधित है।

लाॅक का अनुभववाद दार्शनिक ज्ञान को इंद्रिय अनुभव के यथार्थ धरातल पर अधिष्ठित करता है। वह अनुभव से परे या अनुभव से रहित ज्ञान की धारणा का निषेध करते हैं तथा किन्हीं सहज प्रत्ययों या अनुभव निरपेक्ष स्वयंसिद्धों का खंडन करते हैं।

आलोचनाएं

लाॅक जन्मजात प्रत्ययों की धारणा को स्वीकार नहीं करते। ज्ञान की प्राप्ति का एकमात्र स्रोत इंद्रिय अनुभव है। ज्ञान की प्राप्ति मन या बुद्धि में होती है लेकिन इसमें उसका कोई योगदान नहीं है। विशेष कर सरल प्रत्ययों के ज्ञान के समय मन निष्क्रिय होता है। लेकिन मनोविज्ञान के अनुसार मन सरल प्रत्ययों को ग्रहण करते भी समय सक्रिय होता।

संवेदन और प्रत्यय ज्ञान की सामग्री मात्र हैं। ये स्वयं ज्ञान नहीं है। इन्हें ज्ञान के रूप में परिवर्तित होने के लिए मानसिक/बौद्धिक प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। इस दौरान इंद्रिय अनुभव से प्राप्त प्रत्यय पहले से कुछ अधिक हो जाता है। यह कुछ अधिक ही बुद्धि का अंश है। इस तथ्य को लाॅक समझ और समझा नहीं पाए तथा उन्होंने यह स्थापित कर दिया कि बुद्धि में ऐसा कुछ नहीं है जो इंद्रिय अनुभव में न हो।

अब जब अनुभव ही ज्ञान का एकमात्र स्रोत है तथा हम केवल प्रत्ययों का अनुभव कर सकते हैं तो फिर प्रत्ययों से आगे उन वस्तुओं तक हमारी ज्ञान प्रक्रिया की पहुंच नहीं हो सकती जिनकी ये संवेदन हैं। परंतु लाॅक ज्ञान की इस सीमा का, जिसका उसने स्वयं अनुसंधान किया है, उल्लंघन करते हुए वस्तुओं की सत्ता को स्वीकार करते हैं। इस तरह लाॅक खुद के मानदंडों की अवहेलना करके वस्तुओं की सत्ता को स्वीकार करते हैं। जबकि उनके बाद के अनुभववादियों ने मन की प्रतीतियों से बाहर किसी वस्तु को स्वीकार नहीं किया।

इस तरह लाॅक अपनी प्रणाली से हटकर बाह्य जगत में वस्तुओं की सत्ता को स्वीकार कर लेते हैं। साथ ही साथ उनके गुणों की चर्चा भी करते हैं। लाॅक ने वस्तुओं के दो तरह के गुणों की चर्चा की है। प्राथमिक गुण और द्वितीयक गुण। इन्हें क्रमशः मूल गुण और गौण गुण भी कहा गया है। लाॅक के अनुसार गंध, रंग, स्वाद, ध्वनि  आदि गौण गुण हैं जबकि भार, कठोरता, आयतन, आकार आदि मूल गुण हैं।

परंतु जार्ज बर्कले ने अनुभववाद को आगे बढ़ाते हुए यह सिद्ध किया कि मूल गुणों और गौण गुणों का भेद गलत है तथा जिन आधारों पर कुछ गुणों को गौण सिद्ध किया गया है उन्हीं आधारों पर मूल गुणों को भी गौण सिद्ध किया जा सकता है। किसी वस्तु के रंग को उसके आकार से कैसे अलग किया जा सकता है? क्योंकि जहां तक वस्तु का विस्तार है वहां तक उसका रंग भी है।

अपने अनुभववाद के आधार पर लाॅक ने बताया कि निश्चित और सार्वभौमिक ज्ञान असंभव है। हमारा समस्त ज्ञान संभाव्य ज्ञान है। परंतु डेविड ह्यूम तक आते-आते अनुभववाद संशयवाद में बदल गया। लाॅक की प्रणाली पर चल कर ह्यूम ने सभी आनुभविक ज्ञान को संदेहजनक करार दिया; जिनमें प्राकृतिक विज्ञान भी आ जाते हैं। आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में यह बहुत अप्रिय स्थिति थी। अनंत: कांट ने अनुभववाद और बुद्धिवाद का मेल कराकर अनिवार्य और वास्तविक ज्ञान की संभावना को सिद्ध किया।

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