स्पिनोजा का सर्वेश्वरवाद

स्पिनोजा का सर्वेश्वरवाद

बेनेडिक्ट स्पिनोजा देकार्ते की परंपरा का बुद्धिवादी दार्शनिक है। लेकिन जहां देकार्ते  दो मूल द्रव्यों आत्मा और जड़ भौतिक पदार्थ की सत्ता को स्वीकार करते हैं, स्पिनोजा किसी भी प्रकार के द्वैत को नकार देते हैं। उनके अनुसार द्रव्य वह है जो स्वयंभू है तथा अपने ज्ञान और अस्तित्व के लिए किसी अन्य के सापेक्ष नहीं है।

अतः सत्ता एक है। एक से अधिक होने पर वह निरपेक्ष नहीं हो पाएगा। वह स्वतंत्र है, सर्वव्यापक है। इस प्रकार द्रव्य या सत्ता का अद्वैत उसकी अवधारणा में ही निहित है। सब कुछ द्रव्य है या द्रव्य ही सब कुछ है। स्पिनोजा ने अपने द्रव्य को अमूर्त होने से बचाने के लिए ईश्वर नाम दिया है। इसलिए यह कह सकते हैं कि ईश्वर ही सब कुछ है और सब कुछ ईश्वर है। इस तरह स्पिनोजा के द्रव्य सिद्धांत से उनका सर्वेश्वरवाद फलित होता है।

सर्वेश्वरवाद शब्द से ही स्पष्ट है कि इस सिद्धांत के अनुसार सब कुछ ईश्वर है। चूंकि द्रव्य या ईश्वर एक ही है, सर्वव्यापी है इसलिए ईश्वर ही सब कुछ है। एक अद्वैत द्रव्य सभी देश और काल में व्याप्त होने से सब कुछ ईश्वर है। यह बात सब कुछ में ईश्वर है से अलग और आगे की बात है क्योंकि यदि द्रव्य एक है और वह ईश्वर है तो तार्किक रूप से सब कुछ ईश्वर है।

स्पिनोजा का ईश्वर पूर्ण और निष्काम है। जो इच्छा रखता हो या सकाम हो, उसे पूर्ण नहीं माना जा सकता इसलिए द्रव्य या ईश्वर निष्काम है। सृष्टि बेशक सर्वव्यापक ईश्वर की अभिव्यक्ति है लेकिन यह उसकी रचना न हो कर उसकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। ईश्वर किसी उद्देश्य से परिचालित होकर जगत् की रचना नहीं करते। अतः स्पिनोजा के मत में सृष्टि रचना या विश्व विकास में ईश्वर का कोई प्रयोजन नहीं है।

जगत् की समस्त क्रियाओं और प्रक्रियाओं का कोई उद्देश्य या हेतु नहीं है। ये सब स्वाभाविक और स्वतः हैं। अतः विश्व सप्रयोजन और सोद्देश्य न होकर यांत्रिक है। यह नियतिवाद की ओर ले जाता है। इनमें मानवीय नियंत्रण और हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है। संकल्प की स्वतंत्रता जैसी कोई चीज भी नहीं है।

ईश्वर के तीन रूप

स्पिनोजा ईश्वर के तीन रूपों की चर्चा करते हैं। हमारे आनुभविक ज्ञान से हमें विश्व की विविध वस्तुओं का ज्ञान होता है। ये सब वस्तुएं किसी न किसी कारण के उत्पाद या कार्य हैं। स्पिनोजा ने इन्हें कार्य प्रकृति कहा है। जब कार्य प्रकृति की विविधता में हम बुद्धि के उपयोग से सामान्य कारणों की ओर बढ़ते हैं तब कारण प्रकृति की अवधारणा तक पहुंचते हैं। परंतु अंत:प्रज्ञात्मक ज्ञान से ईश्वर का निर्विकल्प ज्ञान और अपरोक्ष अनुभूति होती है। इस ज्ञान से विश्व की समस्त विविधता का एक ईश्वर से निगमन होता दिखता है।

ईश्वरवाद और सर्वेश्वरवाद दोनों के अनुसार ईश्वर एक है, नित्य है, पूर्ण है तथा किसी न किसी अर्थ में जगत् का आधार है। दोनों में मौलिक अंतर भी है। स्पिनोजा का ईश्वर विभिन्न धर्मों के ईश्वर से भिन्न है। धर्मों के ईश्वर सर्वशक्तिमान और दयालु होते हैं। वे भक्तों के विविध कष्टों को दूर करते हैं। सगुण होते हैं तथा प्रार्थना और भक्ति का आलंबन होते हैं। परंतु स्पिनोजा का ईश्वर निर्गुण और निर्वैयक्तिक है।

ईश्वरवादियों के अनुसार ईश्वर संकल्प करके उद्देश्यपूर्वक जगत् की रचना करते हैं लेकिन स्पिनोजा के विचारों में ईश्वर स्वयं को जगत की विविध वस्तुओं के रूप में व्यक्त करता है।

पुनः स्पिनोजा के अनुसार सब कुछ ईश्वर है। जगत् में जो कुछ  कुरूप, अशुभ और विभत्स हैं वे भी एकमात्र ईश्वर की अभिव्यक्तियां हैं। परंतु ईश्वरवादियों के लिए यह अप्रिय स्थिति है। इसे वह नहीं मान सकते। जो परम शुभ है, जो परमेश्वर है उसकी अभिव्यक्तियां निम्न नहीं हो सकतीं।

स्पिनोजा के अनुसार मनुष्य भी ईश्वर की स्वभाविक और निरुद्देश्य अभिव्यक्ति है इसलिए संकल्प की स्वतंत्रता जैसी कोई बात नहीं है। परंतु ईश्वरवादियों के अनुसार ईश्वर ने मानव को सोच समझकर चुनने, निर्णय करने तथा कर्म करने की स्वतंत्रता से संपन्न बनाया है। इसलिए व्यक्ति अपने कर्मों के लिए स्वयं जिम्मेदार होता है। शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार व्यक्ति पुण्य और पाप का भागी होता है।

सर्वेश्वरवाद और अद्वैतवाद में तुलना

समानताएं

स्पिनोजा भी शंकराचार्य की तरह एक, अद्वैत, निर्वैयक्तिक सत्ता को स्वीकार करतें हैं। शंकर का ब्रह्म निर्गुण और अनिवर्चनीय है। स्पिनोजा के अनुसार भी अनंत गुणों का अधिष्ठान होने के कारण कुछ गुणों के आधार पर ईश्वर की व्याख्या नहीं की जा सकती। शंकर के ब्रह्म और स्पिनोजा के ईश्वर भी सभी भेदों से रहित हैं। दोनों देश कालातीत हैं।

असमानताएं

परंतु दोनों के विचारों में कुछ स्पष्ट अंतर भी हैं।

शंकर के अनुसार ब्रह्म चैतन्य स्वरूप है जबकि स्पिनोजा के अनुसार चेतना ईश्वर के अनंत गुणों में से एक है।

शंकर पर ब्रह्म और अपर ब्रह्म को मानते हैं। ईश्वर अपर ब्रह्म है। वह माया की शक्ति से संपन्न है। सगुण है। जगत् का कारण है। स्पिनोजा ईश्वर के तीन रूपों की चर्चा तो करते हैं लेकिन सगुण निर्गुण का भेद नहीं करते।

जगत के बारे में भी दोनों के विचार भिन्न-भिन्न हैं। शंकराचार्य के अनुसार जगत् सत् असत् दोनों है। जगत् ब्रह्म का विवर्त मात्र है। माया के प्रभाव से जगत् भासित होता है। जगत् व्यावहारिक दृष्टि से सत्य है लेकिन जैसे ही ब्रह्म ज्ञान होता है यह जगत् तिरोहित हो जाता है। इसलिए पारमार्थिक दृष्टि से केवल ब्रह्म सत्य है। ब्रह्म ज्ञान होते ही जगत् का लोप हो जाता है। परंतु स्पिनोजा के विचार में जगत् का कुछ अधिक महत्व है। स्पिनोजा भी यही मानते हैं कि जगत् एकमात्र द्रव्य ईश्वर से बना है तथा ईश्वर का साक्षात्कार होने पर जगत की वस्तुएं उसी से निगमित होती प्रतीत होती है।

शंकराचार्य का दृष्टिकोण आध्यात्मिक है। इन्होंने संकल्प की स्वतंत्रता, कर्म-फल और मोक्ष की धारणा को स्वीकार किया है। जबकि स्पिनोजा के विचारों में ऐसी धारणाओं के लिए स्थान नहीं है।

समीक्षा

स्पिनोजा का ईश्वर निर्गुण और निर्वैयक्तिक है। उन्होंने द्रव्य को ईश्वर माना है। ऐसा ईश्वर धार्मिक भावनाओं का पोषण नहीं कर सकता।

अगर सब कुछ ईश्वर है तो जगत की घृणित वस्तुएं भी ईश्वर हैं। ईश्वर की अभिव्यक्तियां अशुभ हों यह बात समझ से परे है।

स्पिनोजा के अनुसार जगत ईश्वर की स्वभाविक अभिव्यक्ति है। ऐसे में मानवीय प्रयासों के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती। यह यंत्रवाद नियतिवाद की ओर ले जाता है। ऐसे में किसी को उसके कार्यों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

स्पिनोजा जगत की विविधताओं का बचाव नहीं कर पाते। ये सब ईश्वर से निगमित प्रतीत होते हैं इतना कहकर उसने पल्ला झाड़ लेते हैं। उसने सृष्टि या विश्व विकास की प्रक्रिया को समझाया नहीं है।

स्पिनोजा ने ईश्वर को समस्त भेदों से परे माना है। लेकिन अभेद का ज्ञान स़भव नहीं है।

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